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धर्म एवं दर्शन >> पवहारी बाबा

पवहारी बाबा

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9594
आईएसबीएन :9781613013076

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यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।


इसके उपरान्त बहुत दिन बाद इसी विषय पर फिर प्रश्न पूछने पर उन्होंने गम्भीर भाव से उत्तर दिया, ''तुम्हारी क्या ऐसी धारणा है कि केवल स्थूल शरीर द्वारा ही दूसरों की सहायता हो सकती है? क्या शरीर के क्रियाशील हुए बिना केवल मन ही दूसरों के मन की सहायता नहीं कर सकता?'' इसी प्रकार एक दूसरे अवसर पर जब उनसे पूछा गया कि ऐसे श्रेष्ठ योगी होते हुए भी वे होमादि क्रिया तथा श्रीरघुनाथजी की पूजा आदि कर्म - जो साधना की केवल प्रारम्भिक अवस्था के लिए समझे जाते हैं - क्यों करते हैं, तो उन्होंने उत्तर दिया, ''तुम यही क्यों समझ लेते हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपने निज के कल्याण के लिए ही कर्म किया करता है? क्या एक मनुष्य दूसरों के लिए कर्म नहीं कर सकता?''

और फिर उनके बारे में चोरवाली वह कथा भी हर एक ने सुनी है। एक बार एक चोर उनके आश्रम में चोरी करने घुसा, परन्तु इन सन्त को देखते ही वह भयभीत हो, चुराये हुए सामान की गठरी वहीं फेंककर भागा। ये सन्त वह गठरी लिए उस चोर के पीछे मीलों दौड़कर उसके पास जा पहुँचे। उन्होंने वह गठरी उस चोर के पैरों पर रखकर हाथ जोड़कर प्रणाम किया और इस बात के लिए सजल नेत्रों से क्षमायाचना की कि उसके इस चोरी के कार्य में वे बाधक हुए। फिर वे बड़ी कातरता के साथ उससे कहने लगे, ''तुम यह सब सामान ले लो, क्योंकि यह तुम्हारा ही है, मेरा नहीं।'' हमने विश्वस्त व्यक्तियों से यह कथा भी सुनी है कि एक बार एक विषैले नाग ने उन्हें काट लिया। उसके बाद उनके मित्रों ने कई घण्टों तक यही सोचा कि वे मर गये, पर अन्त में वे होश में आ गये। जब उनके मित्रों ने उनसे इसके सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने यही कहा, ''यह नाग तो हमारे प्रियतम का दूत था।''

और हम इस बात में सहज रूप से विश्वास भी कर सकते हैं, क्योंकि हम जानते हैं, उनका स्वभाव कैसे प्रगाढ़ प्रेम, विनय एवं नम्रता से भूषित था। सब प्रकार के शारीरिक दुःख उनके लिए अपने प्रियतम के पास से आये दूत के समान ही थे और यद्यपि इन दुःखों से भी कभी-कभी उन्हें अत्यन्त पीड़ा भी होती थी, पर यदि कोई दूसरा व्यक्ति इन दुःखों को किसी दूसरे नाम से सम्बोधित करता, तो उन्हें बहुत असह्य हो जाता।

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