धर्म एवं दर्शन >> पवहारी बाबा पवहारी बाबास्वामी विवेकानन्द
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यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।
उनका यह मौन प्रेम तथा हृदय की सरलता आसपास के सभी लोगों के हृदय पर अपनी छाप डाल चुकी थी और जिन्होंने आसपास के गाँवों में भ्रमण किया है, वे इस अद्भुत महात्मा के अवर्णनीय नीरव प्रभाव की साक्षी दे सकते हैं।
अन्तिम दिनों में उन्होंने लोगों से मिलना बन्द कर दिया था। जब वे अपनी गुफा के बाहर आते, तब लोगों से बातचीत करते, पर बीच का दरवाजा बन्द रखकर। उनके गुफा से बाहर निकलने का पता उनके ऊपरवाले कमरे में से होम के धुएँ के निकलने से अथवा पूजा की सामग्री ठीक करने की आवाज से चलता था।
उनकी एक विशेषता यह थी कि वे जिस समय जो काम हाथ में लेते थे, वह चाहे कितना ही तुच्छ क्यों न हो, उसमें पूर्णतया तल्लीन हो जाते थे। वे जिस प्रकार पूर्ण अन्तःकरण से श्रीरघुनाथजी की पूजा करते थे, उसी प्रकार एकाग्रता तथा लगन के साथ एक ताँबे का लोटा भी माँजते थे। उन्होंने हमें कर्मरहस्य के सम्बन्ध में यह शिक्षा दी थी कि 'जौन साधन तौन सिद्धि', अर्थात् 'ध्येयप्राप्ति के साधनों से वैसा ही प्रेम रखना चाहिए मानो वे स्वयं ही ध्येय हों', और वे स्वयं इस महान् सत्य के उत्कृष्ट उदाहरण थे।
उनका विनम्र भाव उस प्रकार का नहीं था, जिसका अर्थ होता है कष्ट, पीड़ा और अपनी अवमानना। एक समय उन्होंने हमारे सम्मुख निम्नलिखित भाव की बड़ी सुन्दर व्याख्या की थी - ''हे राजन् ईश्वर तो उन अकिंचनों का धन है, जिन्होंने सब वस्तुओं का त्याग कर दिया है - यहाँ तक कि अपनी आत्मा के सम्बन्ध में भी इस भावना का कि 'यह मेरी है', पूर्ण त्याग कर दिया है।'' और इसी अनुभूति के द्वारा उसमें विनयभाव सहज रूप से प्रकट हुआ था। वे प्रत्यक्ष रूप से कभी उपदेश नहीं देते थे, क्योंकि ऐसा करना तो मानो आचार्यपद ग्रहण करने तथा स्वयं को मानो दूसरों की अपेक्षा उच्चतर आसन पर आरूढ़ कर लेने के सदृश हो जाता। परन्तु एक बार जब उनके हृदय का स्रोत खुल जाता था, तब उसमें से अनन्त ज्ञान की धारा निकल पड़ती थी। पर फिर भी उनके उत्तर सीधे न होकर संकेतात्मक ही हुआ करते थे।
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