धर्म एवं दर्शन >> पवहारी बाबा पवहारी बाबास्वामी विवेकानन्द
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यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लम्बे समय तक वहाँ क्या खाकर रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करनेवाले बाबा कहने लगे।
भारत में जो लोग ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके धार्मिक जीवन बिताते हैं, वे साधारणतया अपना अधिकांश जीवन देश के विभिन्न प्रदेशों में भ्रमण करने में तथा भिन्न-भिन्न तीर्थों एवं पुण्य स्थानों के दर्शन करने में ही व्यतीत करते हैं। जिस चीज का सर्वदा व्यवहार होता रहता है, उसमें जंग कभी नहीं लगता; इसी प्रकार मानो भ्रमण करते रहने से उनमें मलिनता कभी प्रवेश नहीं कर पाती। इससे एक और लाभ होता है - उन महात्माओं द्वारा धर्म मानो प्रत्येक व्यक्ति के दरवाजे पर पहुँच जाता है। जिन्होंने संसार का त्याग किया है, उनके लिए यह आवश्यक कर्तव्य माना गया है कि वे भारत की चारों दिशाओं में स्थित चारों मुख्य धामों (उत्तर में बदरी-केदार, पूर्व में जगन्नाथपुरी, दक्षिण में सेतुबन्ध रामेश्वर, पश्चिम में द्वारका।) का दर्शन करें।
सम्भव है, उपर्युक्त कारणों ने ही हमारे इन युवक ब्रह्मचारी को भारतभ्रमण के लिए उद्यत किया हो, परन्तु यह हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि उनके भ्रमण का मुख्य कारण उनकी ज्ञानतृष्णा ही थी। हमें उनके भ्रमण के सम्बन्ध में बहुत थोड़ी जानकारी है; तथापि जिन द्राविड़ भाषाओं में उनके सम्प्रदाय के अनेक ग्रन्थ लिखे हुए हैं, उन भाषाओं का उनका ज्ञान देखकर, तथा श्रीचैतन्य-सम्प्रदाय के वैष्णवों की प्राचीन बंगला भाषा से भी उनका पूर्ण परिचय देखकर हम अनुमान कर सकते हैं कि दक्षिण तथा बंगाल में वे काफी समय तक रुके होंगे।
परन्तु उनके यौवनकाल के मित्रगण उनके एक विशिष्ट स्थान के प्रवास पर विशेष जोर देते हैं। वे कहते हैं कि काठियावाड़ में गिरनार पर्वत की चोटी पर ही वे सर्वप्रथम व्यावहारिक योग के रहस्यों में दीक्षित हुए थे। यही वह पर्वत है, जिसे बौद्ध अत्यन्त पवित्र मानते थे। इस पर्वत के नीचे वह विशाल शिला है, जिस पर 'राजाओं में परम धर्मशील' अशोक का पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा सर्वप्रथम आविष्कृत धर्मानुशासन उत्कीर्ण है। उसके भी नीचे, सैकड़ों सदियों की विस्मृति के अन्धकार में लीन, अरण्यों से ढँके हुए विशाल स्तूपसमूह थे, जिनके सम्बन्ध में लम्बे अरसे तक यह धारणा थी कि वे गिरनार पर्वतश्रेणी के ही टीले हैं। अब भी वह सम्प्रदाय - जिसका बौद्ध धर्म आज एक संशोधित संस्करण समझा जाता है - इस पर्वत को कम पवित्र नहीं मानता और आश्चर्य की बात यह है कि उसके विश्वविजयी उत्तराधिकारी के आधुनिक हिन्दू धर्म में विलीन होने के पूर्व तक उसने स्थापत्य क्षेत्र में विजयलाभ करने का साहस नहीं किया।
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