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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644
आईएसबीएन :9781613015889

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


।। ॐ श्रीदुर्गायै नमः।।

देव्यापराधक्षमापनस्तोत्र

मंत्रनि-यंत्रनि ज्ञान नहीं कछु आवत ना कल कीरति गाना।
बोध चरित्र को ना तनिको पुनि जानत नाहिं अवाहन ध्याना।।
काह करौं करमुद्रहिं धारि के ना समुझौं दुख रोय सुनाना।
पीछे ही पीछे फिरौं जननी सुत लौं जेहिंते सबसोक विलाना।।१।।
बोध नहीं बिधि पूजन को, धनहीन, गहे बहु आलस गाता।
जाने बिना विधि दोष भयो पद सेवत मातु नहीं मन राता।।
मातु शिवे अपराध क्षमौ, उपकार करौ सुत कौ लखि नाता।
पूत कपूत भले बनि जाय, कहां जग में कोउ मातु कुमाता।।२।।
हैं सुठि सूधे सलोने सुभाय सिवे सुत तेरे बनाये विधाता।
चंचल चित्र हठी मुझ लौं सुत दूजो कहां जग में उपजाता।।
हे भवभामिनि बारहिं बार करूं मनुहार न तोरहु नाता।
पूत कपूत भले बनि जाय कहां जग में कोउ मातु कुमाता।।३।।
जगदम्ब अरी मम अम्ब सुनो पद-सेवन में न कबौं मनु राता।
ना धन सम्पति त्याग कियो अनुरागि हियो कबहूं बनि दाता।।
दीन मलीन सदा अकुलीन पै नेह अनूप कियो सुखदाता।
पूत कपूत भले बनि जाय कहां जग में कोउ मातु कुमाता।।४।।
सुर सेवत सिद्धि न पायो कछू दिन बीति गये अब आयु पचासी।
आकुल हो बिबुधानि के बंधन भूलि भ्रमा सुख को अभिलाषी।।
बूढ़ भयो कहुं राह नहीं जब मातु कृपा न मिले सुखरासी।
मातु लंबोदर की अवलम्ब तुम्हीं पद दो-जन को अविनासी।।१।।
बर्न  परे इक काननि में तब नाम का जो जगमातु सयानी।
मूरख मूढ़ अयान बने बकता कहे बानि सुधारस सानी।।
दीन सुसम्पति पा बिलसे बिचरे बिहरे न रहे भय मानी।
एकहिं अक्षर को फल ये नित जाप किए कहि जात न बानी।।६।।
राख भभूत को अंगनि लेप करें विषपान दिगम्बर बाना।
जाल जटा गल व्याल को माल कपाल लिए वृषाभासन जाना।।
भूत पिसाच करें संग नाच मिल्यो तिनको जगदीस्वर माना।
पानि भवानि तिहारि गहे फल ऐसो मिले को करै गुन गाना।।७।।
चाहत ना परधाम मिले मन काम सरे बहु सम्पति पावौं।
ज्ञान मिले बहु मान मिले सुख-साज मिले चित में नहिं लावौं।।
मातु इहै विनती तुमसे जब लौं घट प्रान सदाशिव ध्यावौं।
नित्य मृडानी भवानी जपौं शिवरानी को हौं कलकीरति गावौं।।८।।
पूजन नाहिं भयो मोंहि ते नव सात विधाननि मातु तिहारो।
वैननि तैं को कहै कल कीरति नामहु लै कबहूं न पुकारो।।
कीन्ह कृपा तबहूं जगदम्ब नहीं मम सील सुभाव विचारो।
दीननि पै करती न कृपा तब कौन अनाथनि होत सहारो।।९।।
भूलि गयो भव-बैभव में दुख में सुमिरौ तव नाम भवानी।
कीजै कृपा करुना करि के सब काटु कलेस सदा सुत जानी।।
दोष कछू नहिं मातु इहां सठता नहिं मोर कछू महरानी।
खेलत मातुहिं भूलिके बालक भूख पियास लगे सुधि आनी।।१०।।
औरहिं ऐसो अनोखो लगै तुम्हरो तो सुभाय इहै जगदम्बा।
कीजे कृपा सुत, सेवक जानि के मातु तुम्हीं करुनानि कदम्बा।।
पूत कपूत करे नित कोटिक पाप नहीं उर आनति अम्बा।
त्यागति ना अनुरागति है जननी जन की तुमही अवलम्बा।।११।
मोहि सम नहिं पापी अधम, तुम समान अघहारि।
जस मन भावे तस करहु, महादेवि उर धारि।।

० ० ०

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