धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
|
3 पाठकों को प्रिय 212 पाठक हैं |
श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
जो फल
इतर मंत्र के जापा।
सप्तसती सोइ निधि जग थापा।।
उत्तम कौन संक उर आनी।
सिव समीप पहुंचे मुनि ज्ञानी।।
तब हँसि बोले संभु सुजाना।
सप्तसती पूरित सुभ ज्ञाना।।
अस कहि गुपुत कीन्ह त्रिपुरारी।
समझे नहिं रिषि मुनि असुरारी।।
पाठ सप्तसती जो फल पावै।
छीजत नाहिं बढ़त नित जावै।।
अन्य मंत्र जप जो सिधि होई।
समय पाय विनसत फल सोई।।
अस विचारि उर बोले संकर।
सप्तसती सब तें उत्तम वर।।
मृषा न होई संभु की बानी।
चित दे जपहु प्रीति उर आनी।।
सप्तसती सोइ निधि जग थापा।।
उत्तम कौन संक उर आनी।
सिव समीप पहुंचे मुनि ज्ञानी।।
तब हँसि बोले संभु सुजाना।
सप्तसती पूरित सुभ ज्ञाना।।
अस कहि गुपुत कीन्ह त्रिपुरारी।
समझे नहिं रिषि मुनि असुरारी।।
पाठ सप्तसती जो फल पावै।
छीजत नाहिं बढ़त नित जावै।।
अन्य मंत्र जप जो सिधि होई।
समय पाय विनसत फल सोई।।
अस विचारि उर बोले संकर।
सप्तसती सब तें उत्तम वर।।
मृषा न होई संभु की बानी।
चित दे जपहु प्रीति उर आनी।।
अन्य मंत्र जे नित जपत, चरित पढ़त करि नेह।
होत परम कल्यानप्रद, इहां न कछु सन्देह।।५।।
कृष्न
पक्ष चौदसि तिथि माहीं।
वा अष्टमि बस में मन आहीं।।
मातुहिं करि अरपित सब दाना।
पुनि प्रसाद सम लेत सुजाना।।
तापर मातु प्रसन्न सदा ही।
दूसर कछु उपाय जगु नाहीं।।
प्रथम समर्पन पुनि करु गहना।
प्रतिबन्धक कीलक कर दहना।।
कीलित करि राखेउ त्रिपुरारी।
विज्ञ पुरूष एहिं बिधि निरवारी।।
चण्डी चरित पाठ नित करई।
सस्वर-पढ़त सिद्धि सब लहई।।
देवि पारषद ताहि बनावैं।
सोइ गन्धर्व-लोक कहं जावैं।।
बिचरत अभय कह को डर ना।
नहिं अकाल पावत है मरना।।
वा अष्टमि बस में मन आहीं।।
मातुहिं करि अरपित सब दाना।
पुनि प्रसाद सम लेत सुजाना।।
तापर मातु प्रसन्न सदा ही।
दूसर कछु उपाय जगु नाहीं।।
प्रथम समर्पन पुनि करु गहना।
प्रतिबन्धक कीलक कर दहना।।
कीलित करि राखेउ त्रिपुरारी।
विज्ञ पुरूष एहिं बिधि निरवारी।।
चण्डी चरित पाठ नित करई।
सस्वर-पढ़त सिद्धि सब लहई।।
देवि पारषद ताहि बनावैं।
सोइ गन्धर्व-लोक कहं जावैं।।
बिचरत अभय कह को डर ना।
नहिं अकाल पावत है मरना।।
सब सुख सम्पत्ति सुलभ जग, भोग भोगि अवसान।
मातु कृपा तें भगत अस पावत पद निरवान।।६।।
|