धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
उत्कीलन
बिनु पढ़ता जोई।
होत अमंगल नासत सोई।।
कीलन निष्कीलन कर ज्ञाना।
उर धरि पढ़त चरित्र सुजाना।।
सुभगा नारि जगत जो राजति।
मातु कृपा सौभाग्यहिं साजति।।
करत पाठ होवै कल्याना।
नित्य किए भवभामिनी ध्याना।।
तस फल मिलत रहत जैसो स्वर।
मन्द पुन्य यदि स्वर हो मंथर।।
पाठ उच्च स्वर तें जो करई।
सब फल मिलत सिद्धि सो लहई।।
होत अमंगल नासत सोई।।
कीलन निष्कीलन कर ज्ञाना।
उर धरि पढ़त चरित्र सुजाना।।
सुभगा नारि जगत जो राजति।
मातु कृपा सौभाग्यहिं साजति।।
करत पाठ होवै कल्याना।
नित्य किए भवभामिनी ध्याना।।
तस फल मिलत रहत जैसो स्वर।
मन्द पुन्य यदि स्वर हो मंथर।।
पाठ उच्च स्वर तें जो करई।
सब फल मिलत सिद्धि सो लहई।।
पढ़त उच्च स्वर से सदा, देवी कृपा विभात।
सुख सम्पति ऐस्वर्य पुनि, आरोग्यहु मिलि जात।।७।।
रिपुभय नासति मातु सब, अन्त देतिं निरवान 1
अस जगदम्बहिं भुज सदा, करि स्रुति वचन प्रमान।।८।।
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