धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
सुंभ
निसुंभ निसाचर नाहा।
चलहु वेगि सुन्दरि उन पाहा।।
केस पकरि खींचत तव चोटी।
वरिआई लै चलब घसीटी।।
तब बोलीं जगजननि भवानी।
मृदु मुसुकानि सुकोमल बानी।।
दैत्यराज अतिसय बलवाना।
महाबली तुमहू मैं जाना।।
सेन साजि आयउ मोहिं पाहीं।
खींचे पकरि, करब कछु नाहीं।।
करहु सोइ जो तुमहिं सुहावा।
जेहिं कारन असुरेस पठावा।।
नृपति असुर सुनि मातुहिं बानीं।
अति खिसिआन कहत मुनि ज्ञानी।।
परम क्रुद्ध धावा सुरद्रोही।
गहन चहेउ तब माता कोही।।
महादेवि पुनि हुं उच्चारा।
तेहि हुंकार असुर जरि छारा।।
निसिचर निकर लरहिं रन माहीं।
लरहिं भिरहिं गरजहिं अकुलाहीं।।
चलहु वेगि सुन्दरि उन पाहा।।
केस पकरि खींचत तव चोटी।
वरिआई लै चलब घसीटी।।
तब बोलीं जगजननि भवानी।
मृदु मुसुकानि सुकोमल बानी।।
दैत्यराज अतिसय बलवाना।
महाबली तुमहू मैं जाना।।
सेन साजि आयउ मोहिं पाहीं।
खींचे पकरि, करब कछु नाहीं।।
करहु सोइ जो तुमहिं सुहावा।
जेहिं कारन असुरेस पठावा।।
नृपति असुर सुनि मातुहिं बानीं।
अति खिसिआन कहत मुनि ज्ञानी।।
परम क्रुद्ध धावा सुरद्रोही।
गहन चहेउ तब माता कोही।।
महादेवि पुनि हुं उच्चारा।
तेहि हुंकार असुर जरि छारा।।
निसिचर निकर लरहिं रन माहीं।
लरहिं भिरहिं गरजहिं अकुलाहीं।।
धूम्रलोचनहिं छार करि, गरजीं मातु प्रचण्ड।
हतहि सेन करि करि जतन, रिपु दल अति बरिबंड।।३।।
अस्त्र
सस्त्र लै विविध प्रचण्डा।
काटहिं मातु असुर गन रुण्डा।।
मारहिं बान साजि कोदण्डा।
काटि गिरावहिं करि दुइ खण्डा।।
सक्ति परसु लै करहिं प्रहारा।
करत निसाचर हाहाकारा।।
चण्डि प्रचण्ड सिंह असवारा।
केहरि रव गूंजत भयकारा।।
हिलत बाल भल सिकुरत देहा।
उछरा कोपि करत बहु तेहा।।
असुर सेन विदरन हरि लागा।
मानहु काल जुद्ध मह जागा।।
पंजनि मारहि जबड़नि फारहि।
पटकि-पटकि दाढनि संहारहि।।
उदर विदरि नख तें कॅख फारी।
मुण्ड रुण्ड ते काटि निवारी।।
कछु बिनु बाहु कछुक बिनु सीसा।
सब अंग तजि अनंग सम दीसा।।
केहरि कोपि प्रकंपित कंधर।
लथपथ भये रुधिर तें निसिचर।।
उदर बिदारि असुर संहारा।
पियत चोपि तिन रक्तहिं धारा।।
परम क्रुद्ध केहरि रन रंगा।
गरजि करत निसिचर तनु भंगा।।
काटहिं मातु असुर गन रुण्डा।।
मारहिं बान साजि कोदण्डा।
काटि गिरावहिं करि दुइ खण्डा।।
सक्ति परसु लै करहिं प्रहारा।
करत निसाचर हाहाकारा।।
चण्डि प्रचण्ड सिंह असवारा।
केहरि रव गूंजत भयकारा।।
हिलत बाल भल सिकुरत देहा।
उछरा कोपि करत बहु तेहा।।
असुर सेन विदरन हरि लागा।
मानहु काल जुद्ध मह जागा।।
पंजनि मारहि जबड़नि फारहि।
पटकि-पटकि दाढनि संहारहि।।
उदर विदरि नख तें कॅख फारी।
मुण्ड रुण्ड ते काटि निवारी।।
कछु बिनु बाहु कछुक बिनु सीसा।
सब अंग तजि अनंग सम दीसा।।
केहरि कोपि प्रकंपित कंधर।
लथपथ भये रुधिर तें निसिचर।।
उदर बिदारि असुर संहारा।
पियत चोपि तिन रक्तहिं धारा।।
परम क्रुद्ध केहरि रन रंगा।
गरजि करत निसिचर तनु भंगा।।
देवीवाहन केसरी, घालत असुर समूह।
कछु भागे निज प्रान लै, करत निसाचर हूह।।४।।
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