धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
लोचनधूम्र
भयो जरि छारी।
रन मंह मरे निसाचर झारी।।
अति खिसिआन सुंभ असुरेसा।
कुटिल भृकुटि कह बचन नरेसा।।
चण्ड मुण्ड लै असुर निकाया।
आनहु केस पकरि करि माया।।
पकरि बांधि खींचत लै आवहु।
लरन चहत तब मारि गिरावहु।।
मारि खींचि लावहु तुम ताका।
छल बल तें जीतहु दोउ बांका।।
बेगि आहु आयसु मम मानी।
लावहु पकरि नारि अभिमानी।।
रन मंह मरे निसाचर झारी।।
अति खिसिआन सुंभ असुरेसा।
कुटिल भृकुटि कह बचन नरेसा।।
चण्ड मुण्ड लै असुर निकाया।
आनहु केस पकरि करि माया।।
पकरि बांधि खींचत लै आवहु।
लरन चहत तब मारि गिरावहु।।
मारि खींचि लावहु तुम ताका।
छल बल तें जीतहु दोउ बांका।।
बेगि आहु आयसु मम मानी।
लावहु पकरि नारि अभिमानी।।
तेहि हति सिंह निपात करि, आनहु इहां बहोरि।
मूढ़ दनुज खल मातु को, कह कटु बचन करोरि।।५।।
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