धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
|
3 पाठकों को प्रिय 212 पाठक हैं |
श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
।। ॐ श्रीदुर्गायै नम:।।
दसवां अध्याय : शुम्भ वध
ध्यान
तप्त
हेम जिमि
रुधिर कान्ति कुन्दन कमनीया।
तीन नयन रवि इन्दु अग्नि, सिर ससि रमनीया।।
धनुष बान अरु पास मूल अंकुस कर धारे।
कामेस्वरि सिव सक्ति रूप उर बसहु हमारे।।
तीन नयन रवि इन्दु अग्नि, सिर ससि रमनीया।।
धनुष बान अरु पास मूल अंकुस कर धारे।
कामेस्वरि सिव सक्ति रूप उर बसहु हमारे।।
जैमिनि एहिं विधि मातु नित, करति जगत उपकार।
मेधा बोले सुरथ अब, सुनहु सुंभ संहार।।१।।
रन
महं मरे निसाचर जोधा।
बन्धु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
बोला सुंभ सहित अभिमाना।
कहि कटु वचन करत अपमाना।।
रे दुष्टे, दुर्गे अभिमानिनि।
मृषा गर्व यह असुर संहारिनि।।
नारि सेन साजे निज पासा।
कहति अकेलि करति हौं नासा।।
बिहंसि वचन बोली महरानी।
मूढ़ एक मैं मातु भवानी।।
आदि सक्ति मम पर नहिं कोई।
मम विभूति जग व्यापत जोई।।
सब मोहि में मोहि तें जग आई।
सकल रूप पुनि बदन समाई।।
ठाढ़ि एक जग जननि भवानी।
बोलीं सकल सृष्टि परधानी।।
बन्धु निधन सुनि उपजा क्रोधा।।
बोला सुंभ सहित अभिमाना।
कहि कटु वचन करत अपमाना।।
रे दुष्टे, दुर्गे अभिमानिनि।
मृषा गर्व यह असुर संहारिनि।।
नारि सेन साजे निज पासा।
कहति अकेलि करति हौं नासा।।
बिहंसि वचन बोली महरानी।
मूढ़ एक मैं मातु भवानी।।
आदि सक्ति मम पर नहिं कोई।
मम विभूति जग व्यापत जोई।।
सब मोहि में मोहि तें जग आई।
सकल रूप पुनि बदन समाई।।
ठाढ़ि एक जग जननि भवानी।
बोलीं सकल सृष्टि परधानी।।
उपजी सकल विभूति मम, सब पुनि मोहिं में लीन।
रहु थिर करु अब जुद्ध खल, एक रूप निज कीन।।२।।
|