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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644
आईएसबीएन :9781613015889

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


कहेउ मुनीस सुनहु महिपाला।
मातु वचन सुनि असुर कराला।।
भिरा देबि सन मानि विरोधा।
इत माता उत निसिचर जोधा।।
द्वन्द्व जुद्ध पुनि भयउ भयंकर।
देखत सुर नर अरु रजनीचर।।
मारहिं बान कृपान प्रहारहिं।
अस्त्र-सस्त्र नाना बिधि डारहिं।।
बेधहिं विधहिं बिदारि पछारहिं।
गरजहिं तरजहिं लरहिं पचारहिं।।
दारुन जुद्ध दोउ बलबंता।
दिव्य अस्त्र कर नाहिन अंता।।
दिव्यास्त्रनि करि सुंभ प्रहारा।
काटहिं मातु करतिं खिलवारा।।
तब छांड़ेउ खल बिसिख कराला।
छिपी मातु मनु ससि घनमाला।।

काटि चण्ड कोदण्ड पुनि, मातु एक ही बान।
सक्ति लिए धावा तुरत, असुर मनहिं खिसिआन।।३।।

चक्रहिं काटेउ सक्ति प्रचण्डा।
धरनि गिरी होइ कर दुइ खण्डा।।
कुपित सुंभ तब लिए कृपाना।
धावा बेगि दनुज बलवाना।।
इक कर चमकि ढाल सतचन्दा।
चमकत जिमि रवि प्रभा अमन्दा।।
देवि मारि सायक अनियारे।
काटि चर्म असि महि पर डारे।।
पुनि तकि अस्व सारथिहिं मारी।
धनु विहीन ठाढ़ा असुरारी।।
मुग्दर लै पुनि मारन धावा।
बान बेधि छन माहिं गिरावा।।
मुठिका तानि चला खिसिआई।
मारेसि ताकि वक्ष पर जाई।।
तुरत 'देवि मारति गहिं चाँटा।
भू पर गिरा असुर सम्राटा।।

धरनि गिरत पुनि उठि संभरि, उछरि देवि ले साथ।
उड़ा गगन जहं थिर भया, छन महं निसिचर नाथ।।४क।।
गगन मध्य आधार बिनु, करत भयंकर जुद्ध।
जगदम्बहिं मारन चहत, लरत असुर अति कुद्ध।।४ख।।

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