धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती श्री दुर्गा सप्तशतीडॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में
विष्नु
कृष्ण हृषिकेस
जनार्दन।
वासुदेव जानत हैं सब जन।।
सुभगा सिवा सुन्दरी गौरी।
उमा सती चण्डी अस जोरी।।
प्रगटीं सकल नारि के रूपा।
पुरुष रूप पुनि कीन्हेउ भूपा।।
यह रहस्य जानत मुनि ज्ञानी।
मूढ़ मनुज महिमा नहिं जानी।।
महालक्ष्मि पुनि अर्पन कीन्हा।
विधि कर मातु त्रयी को दीन्हा।।
शिव के संग सिवा निरवाहा।
विष्णु संग पद्मा कर ब्याहा।।
प्रगट अण्ड ब्रह्मा सरसुति ते।
रुद्र गौरि मिलि भेदन करते।।
वासुदेव जानत हैं सब जन।।
सुभगा सिवा सुन्दरी गौरी।
उमा सती चण्डी अस जोरी।।
प्रगटीं सकल नारि के रूपा।
पुरुष रूप पुनि कीन्हेउ भूपा।।
यह रहस्य जानत मुनि ज्ञानी।
मूढ़ मनुज महिमा नहिं जानी।।
महालक्ष्मि पुनि अर्पन कीन्हा।
विधि कर मातु त्रयी को दीन्हा।।
शिव के संग सिवा निरवाहा।
विष्णु संग पद्मा कर ब्याहा।।
प्रगट अण्ड ब्रह्मा सरसुति ते।
रुद्र गौरि मिलि भेदन करते।।
पुनि प्रगट यह ब्रह्माण्ड जग परधान कारज रूप सब।
जल अनिल पावक धरनि नभ उपजे जगत चर अचर तब।।
श्री सहित हरि पालत सदा पुनि प्रलय नासत गौरि हर।
सब सत्वमयि सब तत्वमयि लक्ष्मी महा हैं भूपवर।।
निराकार साकार सोइ, जग महं रूप अनूप।
नाना नामहिं करु भजन, नाना भांति निरूप।।७।।
महालक्ष्मि के नाम ते, भेद ज्ञात नहिं होइ।
निरगुन सगुन स्वरूप में, व्यापति सब जग सोइ।।८।।
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