धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
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अत्यंत उपलब्ध और अत्यंत अनुपलब्ध तत्त्व का मर्म।
आत्मा का स्वरूप और लक्ष्य
आद्यतम धारणा यह है कि जब मनुष्य मरता है, तो उसका विलोप नहीं हो जाता। कुछ वस्तु मनुष्य के मर जाने के बाद भी जीती है और जीती चली जाती है। संसार के तीन सर्वाधिक पुरातन राष्ट्रों - मिस्रियों, बेबीलोनिअनों और प्राचीन हिन्दुओं - की तुलना करना और उन सब से इस धारणा को ग्रहण करना शायद अधिक अच्छा होगा। मिस्रियों और बेबीलोनियनों में हमें आत्म-विषयक जो एक प्रकार की धारणा मिलती है - वह है प्रतिरूप देह (double)। उनके अनुसार इस देह के भीतर एक प्रतिरूप देह और है, जो वहाँ गति तथा क्रिया करती रहती है; और जब बाह्य देह मरती है, तो प्रतिरूप बाहर चला जाता तथा एक निश्चित समय तक जीता रहता है; किन्तु इस प्रतिरूप का जीवन बाह्य शरीर के परिरक्षण पर अवलम्बित है। यदि प्रतिरूप देही द्वारा छोड़े हुए देह के किसी अंग को क्षति पहुँचे, तो उसके भी उन्हीं अंगों का क्षतिग्रस्त हो जाना निश्चित है। इसी कारण मिस्रियों और बेबीलोनिअनों में शव-लेपन और पिरामिड निर्माण द्वारा किसी व्यक्ति के मृत शरीर को सुरक्षित रखने के प्रति इतना आग्रह मिलता है। बेबीलोनिअनों और प्राचीन मिस्रियों दोनों में यह धारणा भी मिलती है कि यह प्रतिरूप चिरन्तन काल जीता नहीं रह सकता; अधिक से अधिक वह केवल एक निश्चित समय तक ही जीता रह सकता है, अर्थात् केवल उतने समय तक, जब तक उसके द्वारा त्यागे देह को सुरक्षित रखा जा सके।
दूसरी विचित्रता इस प्रतिरूप से सम्बन्धित भय का तत्व है। प्रतिरूप देह सदैव दुःखी और विपन्न रहती है; उसके अस्तित्व की दशा अत्यन्त कष्ट की होती है। वह उन खाद्य और पेय पदार्थों तथा भोगों को माँगने के निमित्त जीवित व्यक्तियों के निकट बारम्बार आती रहती है, जिनको वह अब प्राप्त नहीं कर सकती। वह नील नदी के जल को, उसके उस ताजे जल को, पीना चाहती है, जिसको वह अब पी नहीं पाती। वह उन खाद्य पदार्थों को पुन: प्राप्त करना चाहती है, जिनका आनन्द वह इस जीवन में लिया करती थी; और जब वह देखती है कि वह उन्हें नहीं पा सकती, तो वह दूसरी देह क्रूर हो जाती है और यदि उसे वैसा आहार न दिया जाय, तो वह कभी-कभी जीवित व्यक्तियों को मृत्यु एवं विपत्ति से धमकाती है।
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