धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
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अत्यंत उपलब्ध और अत्यंत अनुपलब्ध तत्त्व का मर्म।
आर्य विचारधारा पर दृष्टि डालते ही हमें तत्काल एक बड़ा अन्तर मिलता है। प्रतिरूप की धारणा वहाँ भी है, किन्तु वह एक प्रकार की आध्यात्मिक देह का रूप ले लेता है; और एक बड़ा अन्तर यह है कि इस आध्यात्मिक देह आत्मा या तुम उसे जो भी कहो, उसका जीवन उसके द्वारा त्यागे हुए शरीर के द्वारा परिसीमित नहीं होता, वरन् इसके विरुद्ध, वह इस शरीर से स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेती है, और मृत शरीर को जला देने की विचित्र आर्य प्रथा इसी का कारण है। वे व्यक्ति द्वारा त्यागे शरीर से छुटकारा पा जाना चाहते हैं, जब कि मिस्री दफनाकर, शव-लेपन कर, या पिरामिड बनाकर उसे सुरक्षित रखना चाहते हैं। मृतकों को नष्ट करने की नितान्त आदिम पद्धति के अतिरिक्त, किसी सीमा तक विकसित राष्ट्रों में मृत व्यक्तियों के शरीरों से मुक्ति पाने की उनकी प्रणाली आत्मा सम्बन्धी उनकी धारणा का एक उत्तम परिचायक होती है।
जहाँ-जहाँ अपगत आत्मा की धारणा मृत शरीर की धारणा से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध मिलती है, वहाँ हमें शरीर को सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति भी सदैव मिलती है, और दफन करने का कोई न कोई रूप भी। दूसरी ओर, जिनमें यह धारणा विकसित हो गयी है कि आत्मा शरीर से एक स्वतन्त्र वस्तु है और शव के नष्ट कर दिये जाने पर भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचती, उनमें सदैव दाह की पद्धति का ही आश्रय लिया जाता है। इसीलिए सभी प्राचीन आर्य जातियों में हमें शव की दाह-क्रिया मिलती है, यद्यपि पारसियों ने शव को एक मीनार पर खुला छोड़ देने के रूप में उसको परिवर्तित कर लिया है। किन्तु उस मीनार के स्वयं नाम (दख्म) का ही अर्थ है एक दाह-स्थान, जिससे प्रकट है कि पुरातन काल में वे भी अपने शवों का दाह करते थे। दूसरी विशेषता यह है कि आर्यों में इन प्रतिरूपों के प्रति कभी भय का तत्व नहीं रहा। वे आहार या सहायता माँगने के निमित्त नीचे नहीं आते, और न सहायता न मिलने पर कूर हो उठते हैं और न वे जीवित लोगों का विनाश ही करते हैं। वरन् वे हर्षयुक्त होते हैं और स्वतन्त्र हो जाने के कारण प्रसन्न। चिता की अग्नि विघटन की प्रतीक है। इस प्रतीक से कहा जाता है कि वह अपगत आत्मा को कोमलता से ऊपर ले जांय और उस स्थान में ले जांय, जहाँ पितर निवास करते हैं, इत्यादि।
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