धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
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अत्यंत उपलब्ध और अत्यंत अनुपलब्ध तत्त्व का मर्म।
एक दूसरा सम्प्रदाय भी था, जिसका मत यह था कि यह सब ऐसा नहीं हो सकता। यद्यपि आत्माएँ स्वरूपत: शुद्ध और पूर्ण हैं उनकी यह शुद्धता और पूर्णता, जैसा कि लोगों ने कहा है, कभी संकुचित और कभी प्रसूत हो जाती हैं। कतिपय कर्म और कतिपय विचार ऐसे हैं, जो आत्मा के स्वरूप को संकुचित जैसा कर देते हैं; और फिर ऐसे भी विचार और कर्म हैं, जो उसके स्वरूप को प्रकट करते हैं, व्यक्त करते हैं, फिर इसकी व्याख्या की गयी है। ऐसे सभी विचार और कर्म जो आत्मा की पवित्रता और शक्ति को संकुचित कर देते हैं, अशुभ कर्म और अशुभ विचार हैं; और वे सभी विचार एवं कर्म जो स्वयं को व्यक्त करने में आत्मा को सहायता देते, शक्तियों को प्रकट जैसा होने देते हैं, शुभ और नैतिक हैं। इन दो सिद्धान्तों में अन्तर अत्यन्त अल्प है; वह कम-अधिक प्रसारण और संकुचन शब्दों का खेल है वह मत जो विविधता को केवल आत्मा के उपलब्ध मन पर निर्भर मानता है, निस्सन्देह अधिक उत्तम व्याख्या है; लेकिन संकुचन और प्रसारण का सिद्धान्त इन दो शब्दों की शरण लेना चाहता है; उनसे पूछा जाना चाहिए कि संकुचन और प्रसारण का अर्थ क्या है? आत्मा एक निराकार चेतन वस्तु है।
प्रसार और संकोच का क्या अर्थ है, यह प्रश्न तुम किसी सामग्री के सम्बन्ध में ही कर सकते हो, चाहे वह स्थूल हो जिसे हम भौतिक द्रव्य कहते हैं, चाहे वह सूक्ष्म, मन, हो; किन्तु इसके परे, यदि वह देश-काल से आबद्ध भौतिक द्रव्य नहीं है, उसको लेकर प्रसार और संकोच शब्दों की व्याख्या कैसे की जा सकती है? अतएव यह सिद्धान्त जो मानता है कि आत्मा सर्वदा शुद्ध और पूर्ण है, केवल उसका स्वरूप कुछ मनों में अधिक और कुछ में कम प्रतिबिम्बित होता है, अधिक उत्तम प्रतीत होता है। जैसे-जैसे मन परिवर्तित होता है, उसका रूप विकसित एवं अधिकाधिक निर्मल-सा होता जाता है और वह आत्मा का अधिक उत्तम प्रतिबिम्ब देने लगता है। यह इसी प्रकार चलता रहता है और अन्तत: वह इतना शुद्ध हो जाता है कि वह आत्मा के गुण का पूर्ण प्रतिबिम्बन कर सकता है; तब आत्मा मुक्त हो जाती है। यही आत्मा का स्वरूप है।
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