धर्म एवं दर्शन >> आत्मतत्त्व आत्मतत्त्वस्वामी विवेकानन्द
|
9 पाठकों को प्रिय 27 पाठक हैं |
अत्यंत उपलब्ध और अत्यंत अनुपलब्ध तत्त्व का मर्म।
उसका लक्ष्य क्या है? भारत में सभी विभिन्न सम्प्रदायों में आत्मा का लक्ष्य एक ही प्रतीत होता है। उन सब में एक ही धारणा मिलती है और वह है मुक्ति की। मनुष्य असीम है; किन्तु अभी जिस सीमा में उसका अस्तित्व है, वह उसका स्वरूप नहीं है। किन्तु इन सीमाओं के मध्य, वह अनन्त, असीम, अपने जन्मसिद्ध अधिकार, अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेने तक आगे और ऊपर बढ़ने के निमित्त संघर्ष कर रहा है। हम अपने आसपास जो इन सब संघातों और पुनसंघातों तथा अभिव्यक्तियों को देखते हैं, वे लक्ष्य या उद्देश्य नहीं है, वरन् वे मात्र प्रासंगिक और गौण हैं। पृथ्वियों और सूर्यों, चन्द्रों और नक्षत्रों, उचित और अनुचित, शुभ और अशुभ, हमारे हास्य और अश्रु, हमारे हर्ष और शोक, जैसे संघात उन अनुभवों को प्राप्त करने में हमारी सहायता के लिए हैं, जिनके माध्यम से आत्मा अपने परिपूर्ण स्वरूप को व्यक्त करती और सीमितता को निकाल बाहर करती है। तब वह बाह्य या आन्तरिक प्रकृति के नियमों से बँधी नहीं रह जाती। तब वह समस्त नियमों समस्त सीमाओं, समस्त प्रकृति के परे चली जाती है। प्रकृति आत्मा के नियन्त्रण के अधीन हो जाती है; और जैसा वह अभी मानती है, आत्मा प्रकृति के नियन्त्रण के अधीन नहीं रह जाती। आत्मा का यही एक लक्ष्य है; और उस लक्ष्य - मुक्ति - को प्राप्त करने में वह जिन समस्त क्रमागत सोपानों में व्यक्त होती तथा जिन समस्त अनुभवों के मध्य गुजरती है, वे सब उसके जन्म माने जाते हैं। आत्मा एक निम्नतर देह धारण करके उसके माध्यम से अपने को व्यक्त करने का प्रयास जैसा करती है। वह उसको अपर्याप्त पाती है, उसे त्यागकर एक उच्चतर देह धारण करती है। उसके द्वारा वह अपने को व्यक्त करने का प्रयत्न करती है। वह भी अपर्याप्त पायी जाने पर त्याग दी जाती है और एक उच्चतर देह आ जाती है; इसी प्रकार यह क्रम एक ऐसा शरीर प्राप्त हो जाने तक निरन्तर चलता रहता है, जिसके द्वारा आत्मा अपनी सर्वोच्च महत्त्वाकांक्षाओं को व्यक्त करने में समर्थ हो पाती है। तब आत्मा मुक्त हो जाती है।
|