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उपन्यास >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689
आईएसबीएन :9781613014455

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


रमेश का रोआँ-रोआँ गाँव के विरुद्ध बोल रहा था और आज तो वह पराकाष्ठा तक पहुँच गया। गाँव से स्टेशन को जाने वाला रास्ता आठ-दस वर्ष पहले की बरसात से टूट गया था, और तब से आज तक किसी ने उनकी बात तक न पूछी थी। हर साल बरसात में उसका आकार बढ़ता ही गया। वहाँ सदैव ही थोड़ा-बहुत पानी जमा होने लगा, जिसके कारण स्टेशन से आने-जानेवाले लोगों को हरदम खतरा रहता, और बड़ी मुश्किल से उसे पार करना होता। कभी लोग उसमें बाँस डाल देते और कभी ताड़ की छोटी नाव ही औंधी डालकर उस पर से पार होते। पर किसी गाँववाले ने कष्ट सहते हुए भी यह न सोचा कि इसे ठीक ही करा लिया जाए! रमेश ने उसकी मरम्मत कराने में पहल की, और मरम्मत के लिए चंदा उगाहने की बात सोची। पर आठ-दस दिन की दौड़-धूप के बाद भी उसे नाकामयाबी ही मिली। यहीं तक बात रहती, तो भी गनीमत थी; किंतु वहाँ तो लोगों में काना-फूसी चल रही थी। आज सबेरे वह जब टहलकर लौट रहा था, तब उन्होंने वह सुनार की दुकान के अंदर इसी बारे में काना-फूसी सुनी। एक ने हँसते हुए कहा था-'एक धोला मत देना तुम लोग! उन्हें ही सबसे ज्यादा गरज है, सड़क बनाने की। ऐसे में भला चमकते जूते पहनकर उसे कैसे पार कर सकते हैं? तुम लोग दो चाहे न दो, मरम्मत तो वह आप कराएगा ही...तो फिर नाहक में हम दें ही क्यों भला? रही हम लोगों की बात, तो अब तक आते-जाते ही थे स्टेशन, काम तो रुका नहीं था, सो अब भी न रुका रहेगा!'

एक और आदमी ने कहा- 'अरे, अभी देखते तो चलो! उस दिन चटर्जी महाशय कह रहे थे-अभी तो रमेश से शीतला का मंदिर ठीक कराना है! बस, 'बाबू' कह कर दो-चार खुशामदी बातें कही नहीं कि काम बना नहीं!'

यही दो बातें थीं जो सबेरे से उसके सारे अंत:करण को विदीर्ण कर, उसे गाँव के प्रति विद्रोही बना रही थीं।

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