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उपन्यास >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689
आईएसबीएन :9781613014455

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


'जी! यह शास्त्र का नियम जो ठहरा! मुर्दा न पड़ा रहे, इसलिए बेचारी भीख माँगने निकली है। क्यों कामिनी की माँ, कहीं और भी गई थी क्या?'

लड़के ने अपनी मुट्ठी में बँधे पाँच आने पैसे दिखा दिए और कामिनी की माँ बोली-'मुकर्जी के घर से चवन्नी मिली है, और हवलदार ने दिए हैं चार पैसे। पर प्रायश्चिीत में तो लगेंगे सवा दो रुपए! इससे कम में तो हो ही नहीं सकता! यदि बाबू की कृपा हो जाए तो...।'

'और अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं, घर जाओ! मैं आदमी भेज कर सारा प्रबंध करा दूँगा।'

वे लोग चले गए। गोपाल सरकार की तरफ अत्यंत दु:खित नेत्रों से देख कर रमेश बोला-'क्यों सरकार जी, इस गाँव में भला कितने घर इस तरह के गरीब होगें?'

'दो-तीन होंगे। ये लोग भी खाते-पीते थे। पर एक पेड़ के पीछे सनातन हजारी से उन्हें द्वारिका का मुकदमा चला, और नौबत यहाँ तक आ गई कि बस उजड़ ही गए! दाने-दाने को मोहताज हो गए! यहाँ तक हालत न भी बिगड़ती।'-वह स्वर धीमा करके बोले-'हमारे वेणी बाबू और गोविंद गांगुली ने बढ़ावा दे-दे कर, इस दशा को पहुँचा दिया इन बेचारों को!'

रमेश बोला-'और वेणी बाबू के ही यहाँ इनकी मिलकियत गिरवी होती चली गई, और पिछले साल मूल में सूद मिला कर, कौड़ी के दाम सारी जायदाद उन्होंने खरीद ली! धन्य है यह कामिनी की माँ, जो इस बेचारे की दीनावस्था में सहायता करके, मानवता का सही धर्म निभाया!'

फिर रमेश ने एक दीर्घ निःश्वाहस, गोपाल सरकार को उसका सब प्रबंध करने को भेज दिया और मन-ही-कहा-'ताई जी, आपकी आज्ञा मेरे सिर-माथे पर! अब मेरे प्राण भी यहाँ निकल जाएँ तो मुझे दु:ख न होगा; पर इस गाँव को छोड़ कर अब कहीं नहीं जाने का!'

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