उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
'भूख लगी होगी, पर मैं कहूंगी नहीं।' 'क्यों नहीं कहेगी?' 'कहने से मुझे बहत मारेंगे। मैं खाना दे आऊंगी।' धर्मदास ने कछ असंतुष्ट होकर कहा-'तो दे आना और संझा के पहले ही घर भुलावा देकर ले आना।' 'ले आऊंगी।'
घर पर आकर पार्वती ने देखा कि उसकी मां और देवदास की मां ने सारी कथा सुन ली है। उससे भी सब बातें पूछी गयीं। हंसकर, गंभीर होकर उससे जो कुछ कहते बना, उसने कहा। फिर आंचल में फरूही बांधकर वह जमीदार के एक बगीचे में घुसी। बगीचा उन लोगों के मकान के पास था और इसी में एक ओर एक बैसवाड़ी थी। वह जानती थी कि छिपकर तमाखू पीने के लिए देवदास ने इसी बैसवाड़ी के बीच एक स्थान साफ कर रखा है। भागकर छिपने के लिए यही उसका गुप्त स्थान था। भीतर जाकर पार्वती ने देखा कि बांस की झाडी के बीच में देवदास हाथ में एक छोटा-सा हुक्का लेकर बैठा है और बड़ों की तरह धूम्रपान कर रहा है। मुख बड़ा गंभीर था, उससे यथेष्ट दुर्भावना का चिन्ह प्रकट हो रहा था। वह पार्वती को आयी देखकर बडा प्रसन्न हुआ, किंतु बाहर प्रकट नहीं किया। तमाखू पीते-पीते कहा 'आओ।'
पार्वती पास आकर बैठ गयी। आंचल मे जो बंधा हुआ था, उस पर देवदास की दृष्टि तत्क्षण पड़ी। कुछ भी न पूछकर उसने पहले उसे खोलकर खाना आरंभ करते हए कहा-'पारो, पंडितजी ने क्या किया?'
'बडे चाचा से कहा दिया।'
देवदास ने हुंकारी भरकर आँख तरेरकर कहा-'बाबूजी से कहा दिया?'
'हां।'
'उसके बाद?'
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