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उपन्यास >> देवदास

देवदास

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9690
आईएसबीएन :9781613014639

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कालजयी प्रेम कथा


'तुम कैसे जानते हो कि वे लोग राजी हैं, वे बिल्कुल राजी नहीं हैं।'

देवदास ने हंसने की व्यर्थ की चेष्टा करके कहा- 'अरे नहीं, वे लोग राजी हैं; यह मैं अच्छी तरह से जानता हूं। सिर्फ तुम...!'

पार्वती ने बीच में ही बात काटकर तीव्र कंठ से कहा- 'सिर्फ मैं तुम्हारे साथ? छि...!'

पलक मारते देवदास की दोनों आँखें अग्नि की तरह जल उठीं। उसने अवरुद्ध कंठ से कहा- 'पार्वती, क्या मुझे भूल गयी।'

पहले पार्वती भी कुछ चंचल हो उठी, किन्तु दूसरे ही क्षण आत्म-संवरण कर शांत और कठिन स्वर से उत्तर दिया- 'नहीं, भूलूंगी क्यों? लड़कपन से ही तुमको देखती आयी हूं। होश संभला तभी से तुमसे डरती हूं - क्या उसी डर को तुम दिखाने आये हो? पर क्या मुझे भी तुम नहीं पहचानते?' यह कहकर वह निर्भीक दोनों आँखों को ऊपर उठाकर खड़ी हो रही।

पहले देवदास के मुंह से कोई बात नहीं निकली, फिर कहा- 'सर्वदा से मुझसे तुम डरती ही आयी हो और कुछ नहीं?'

पार्वती ने दृढ़ स्वर से कहा - 'नहीं और कुछ नहीं।'

'सच कहती हो?'

'हां, सच कहती हूं। तुम पर मेरी कुछ भी श्रद्धा नहीं है। मैं जिसके यहां जा रही हूं, वे धनवान, बुद्धिमान, शांत और स्थिर हैं। वे धार्मिक हैं। मेरे बाप मेरा भला सोचते हैं, इसी से वे तुम्हारे जैसे अज्ञान, अव्यवस्थित चित्त, दुर्दान्त मनुष्य के हाथ मुझे किसी तरह नहीं देना चाहते। तुम रास्ता छोड़ दो।'

एक बार देवदास ने कुछ इधर-उधर किया। एक बार रास्ता छोड़ने के लिए भी तैयार हुए; परन्तु फिर दृढ़ता के साथ मुंह उठाकर कहा- 'इतना अहंकार?'

पार्वती ने कहा - 'क्यों नहीं? तुम कर सकते हो और मैं नहीं? तुम में रूप है, गुण नहीं, मुझ में रूप भी है, गुण भी है... तुम बड़े आदमी हो, लेकिन मेरे पिता भी भिक्षुक नहीं हैं। इसे छोड़ मैं स्वयं भी तुम लोगों से किसी अंश में हीन नहीं रहूंगी।'

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