धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
यह चतुर्मुखी नीति
यज्ञोपवीत की होती है। इन सबका सारांश यह है कि उचित मार्ग से अपनी
शक्तियों को बढ़ाओ, अन्तःकरण को उदार रखते हुए अपनी शक्ति का अधिकांश भाग
जनहित के लिए लगाये रहो। इसी कल्याणकारी नीति पर चलने से मनुष्य व्यष्टि
रूप से तथा समस्त संसार में समष्टि रूप से सुख शान्ति प्राप्त कर सकता है।
यज्ञोपवीत गायत्री की मूर्तिमान् प्रतिमा है। उसका जो सन्देश मनुष्य जाति
के लिये है, उसके अतिरिक्त और कोई मार्ग ऐसा नहीं है, जिसमें वैयक्तिक तथा
सामाजिक सुख-शान्ति रह सके।
सुरलोक में एक ऐसा
कल्पवृक्ष है, जिसके नीचे बैठकर जिस वस्तु की कामना की जाय वही वस्तु
तुरन्त सामने उपस्थित हो जाती है। जो भी इच्छा की जाय पूरी हो जाती है। वह
कल्पवृक्ष - जिनके पास होगा वे कितने सुखी एवं समृद्ध होंगे, इसकी कल्पना
सहज ही की जा सकती है।
पृथ्वी पर भी एक ऐसा
कल्प-वृक्ष है। जिसमें सुरलोक के कल्प-वृक्ष की सभी सम्भावनायें छिपी हुई
हैं। इसका नाम है- गायत्री। गायत्री-मन्त्र को स्थूल-दृष्टि से देखा जाय
तो 24 अक्षरों और नौ पदों की एक शब्द-शृंखला मात्र है। परन्तु यदि
गम्भीरतापूर्वक अवलोकन किया जाय तो उसके प्रत्येक पद और अक्षर में ऐसे
तत्त्वों का रहस्य छिपा हुआ मिलेगा जिसके द्वारा कल्पवृक्ष के समान ही
समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो सकती है।
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