धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
शास्त्रों में गायत्री
कल्प-वृक्ष का वर्णन मिलता है। इसमें बताया गया है ''ॐ'' ईश्वर, आस्तिकता
ही भारतीय धर्म का मूल है। इससे आगे बढ़कर उसके तीन विभाग होते हैं- भूः
भुवः स्वः। भूः का अर्थ है आत्मज्ञान। भुव: का अर्थ है- कर्मयोग। स्व: का
है- स्थिरता समाधि। इन तीन शाखाओं में से प्रत्येक में तीन-तीन टहनियाँ
निकलती हैं, उनमें से प्रत्येक के भी अपने-अपने तात्पर्य हैं। तत्- जीवन।
सवितु: - शक्ति संचय। वरेण्यं - श्रेष्ठता। भर्गो - निर्मलता। देवस्य -
दृष्टि। धीमहि - सद्गुण। धियो - विवेक। यो नः - संयम। प्रचोदयात् - सेवा।
गायत्री हमारी मनोभूमि में इन्हीं को बोती है। फलस्वरूप जो खेत उगता है,
वह कल्प-वृक्ष से किसी प्रकार भी कम नहीं होता।
ऐसा उल्लेख मिलता है कि
कल्प-वृक्ष के सब पत्ते रत्न जड़ित हैं। वे रत्नों जैसे सुशोभित और
बहुमूल्य होते हैं। गायत्री कल्प-वृक्ष के उपरोक्त नौ पत्ते, निःसन्देह नौ
रत्नों समान मूल्यवान् और महत्वपूर्ण हैं। प्रत्येक पत्ता प्रत्येक गुण,
एक रत्न से किसी भी प्रकार कम नहीं। ''नौलखा हार'' की जेवरों में बहुत
प्रशंसा है। नौ-लाख रुपये की लागत से बना हुआ 'नौलखा-हार' पहनने वाले को
बड़ा सौभाग्यशाली समझते हैं। यदि गम्भीर तात्त्विक और दूर दृष्टि से देखा
जाय तो यज्ञोपवीत भी नव-रत्न जड़ित नौलखा-हार से किसी प्रकार कम महत्व का
नहीं है। गायत्री-गीता के अनुसार यज्ञोपवीत के नौ तार जिन नौ गुणों को
धारण करने का आदेश करते हैं वे इतने महत्वपूर्ण हैं कि नौ रत्नों की तुलना
में इन गुणों की महिमा अधिक है।
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- जीवन-विज्ञान की जानकारी होने से
मनुष्य जन्म-मरण के
रहस्य को समझ जाता है। उसे मृत्यु का डर नहीं लगता, सदा निर्भय रहता है,
उसे शरीर का तथा सांसारिक वस्तुओं का लोभ-मोह भी नहीं होता। फलस्वरूप जिन
साधारण हानि-लाभ के लिये लोग दुःख के समुद्र में डूबते और हर्ष के मद में
उछलते हैं उन उन्मादों से बच जाता है।
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