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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


तीन हजार साल के इतिहास में पंद्रह हजार युद्ध और आगे का पीछे का इतिहास तो पता नहीं है। हम यह मान नहीं सकते कि उसके पहले आदमी नहीं लड़ता रहा होगा। लड़ता ही रहा होगा। जब तीन हजार वर्षों में पंद्रह हजार युद्ध करता है आदमी, प्रति वर्ष पांच युद्ध करता है तो ऐसा मानना बहुत मुश्किल है कि वह शांत रहा होगा। इतना ही है कि उसके पहले का इतिहास हमें ज्ञात नहीं। दूसरे महायुद्ध के बाद ईश्वर घबड़ा गया। क्योंकि पहले महायुद्ध में साढ़े तीन करोड़ लोगों की हत्या हुई! दूसरे महायुद्ध में हत्या की संख्या साढ़े सात करोड़ पहुंच गई। क्या हो गया आदमी को?
उसने दुनिया के तीन बड़े प्रतिनिधियों को अपने पास बुलाया। रूस को, अमेरिका को, ब्रिटेन को और उनसे पूछा कि मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूं! तुम एक-एक वरदान मांग लो, ताकि यह दुनिया की पागल होड़ बंद हो जाए। युद्ध बंद हो जाए। आदमी बच सके। और फिर तो यह ठीक भी है। अगर आदमी यह तय करता हो कि हमको मरना है तो मर जाए लेकिन अपने साथ सारे जीवन को नष्ट करने का तो कोई हक मनुष्य को नहीं। मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं!

ईश्वर से हमेशा प्रार्थना की गई थी, लेकिन समय बदल गया। कभी नाव नदी पर होती है, कभी नदी नाव पर हो जाती है!
ईश्वर ने हाथ जोड़कर घुटने टेक दिए उन तीनों के सामने! हम प्रार्थना करते हैं कि एक-एक वरदान मांग लो। तुम जो भी चाहते हो, मैं पूरा कर दू। अमेरिका के प्रतिनिधि ने कहा 'हे महाप्रभु एक ही इच्छा है हमारी, वह पूरी हो जाए फिर तो दुनिया में कभी युद्ध नहीं होगा। रूस जमीन पर न बचे। इसका कोई निशान न रह जाए। इतना हम चाहते हैं और हमारी कोई आकांक्षा नहीं।'
ईश्वर ने घबराकर रूस की तरफ देखा। जब अमेरिका यह कहता हो-धार्मिक देश! तो रूस क्या कहेगा? रूस ने कहा महाशय! या हो सकता है, कहा हो कामरेड! क्षमा करें। पहले तो मैं विश्वास नहीं करता कि आप हैं। कैपिटल पढ़ी है कार्ल मार्क्स की? कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़ा है-एंजल्स और कार्ल मार्क्स का? कितने जमाना पहले उन्होंने खबर कर दी कि भगवान नहीं है। और 1917 से रूस के गिरजों से आपको निकाल बाहर किया। आप अब नही हैं। मुझे शक होता है, मैं वोडका शराब ज्यादा पी गया हूं। इसलिए आप दिखाई पड़ रहे हैं। और या यह भी हो सकता है कि मैं कोई सपना देख रहा हूं। लेकिन बड़ा आश्चर्यजनक है कि सोवियत भूमि पर ऐसा धार्मिक सपना कैसे संभव हो पाता? अगर सरकार को पता लग गया कि ऐसे धार्मिक सपने आदमी देखते है, तो सपने देखने पर भी पाबंदी हो जाएगी। सपने देखने की स्वतंत्रता नही दी जा सकती आदमी को। गलत सपने देखने की स्वतत्रता दी जाए? रूस में नहीं दी जा सकती। चीन में नहीं दी जा सकती।
फिर भी मैं आपसे यह कहता हूं कि हो सकता है कि आप हों। एक सबूत दें होने का तो हम आपकी पूजा फिर से शुरू कर दें। दीए जलेंगे, धूप जलेगी, मंदिरों में पूजा होगी, घंटियां बजेगी-एक इच्छा पूरी कर दें। एक ही इच्छा है हमारी-दुनिया का नक्शा हो, लेकिन अमेरिका के लिए कोई रंगरेखा उस नक्शे पर हम नहीं चाहते। 

और घबराएं मत! क्योंकि ईश्वर घबड़ा गया होगा। घबडाएं मत, अगर आप क् कर सकें तो फिकर मत करें, हमने खुद यह काम करने का पूरा इंतजाम कर लिया है।' हम खुद भी कर लेंगे।' हम आपके भरोसे पर नहीं कर रहे यह ईतजाम। यह इंतजाम अपने पैरों पर किया है और हमें इसकी भी कोई चिंता नहीं है कि अमेरिका को मिटाने में हम मिट जाएंगे। हम मिट जाएं उसकी फिकर नहीं लेकिन अमेरिका नहीं रहना चाहिए। यह हमारा कष्ट है।'
ईश्वर ने बहुत घबड़ाकर ब्रिटेन की तरफ देखा। ब्रिटेन ने जो कहा वह ध्यान से सुन लेना। ब्रिटेन ने कहा, हे परम पिता। चरणों पर सिर रख दिया, अब हमारी कोई आकांक्षा नहीं, 'इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी कर दी जाएं हमारी आकांक्षा पूरी हो जाएगी।''
यह हमें हंसने जैसा मालूम होता है, लेकिन किस पर हंसते हैं आप? ब्रिटेन पर. अमेरिका पर, रूस पर, भगवान पर-किस पर हंसते हैं आप? या तौ अपने पर, या कि मनष्य पर, या कि मनुष्यता पर? मनुष्य को क्या हुआ है? कौन-सा रोग है उसके मन में? उसके प्राणों को कौन-सी चीज खा रही है कि मिटना, मिटाना, यही इसके प्राणों की पुकार बन गई है-मृत्यु और मृत्यु!

पुरुष जीतना चाहता है और जीत उसको एक ही तरह सूझती है। मारने से, मृत्यु से, मिटाने से। पुरुष को सूझता ही नहीं कि मिटाने के अलावा कोई जीत होती है? उसे यह पता ही नही है कि यह मिटाकर कभी कोई जीता ही नहीं है।'
एक और जीत भी होती है, जो मिटाने से नहीं आती! उसे यह पता भी नही है, एक और जीत भी होती है, जो हार जाने से आती है। यह पुरुष को पता ही नहीं!

एक ऐसी जीत भी हो सकती है, जो उसको मिलती है जो हार जाता है, जो लड़ता ही नहीं। इसका पुरुष को कोई भी पता नहीं।
उसे पता हो भी नही सकता। उसके चित्त की पूरी की पूरी प्रकृति एग्रेसिव आक्रामक है। उसका एक ही खयाल है: दबो या दबाओ, हारो या जीतो। और जीतने की दौड़ में चाहे कुछ भी हो जाए, खुद मिटो चाहे कोई मिट जाए लेकिन जीतना जरूरी है। लेकिन जीतना किसलिए जरूरी है? जीतना जीने के लिए जरूरी है । और जीतने में मौत लानी पड़ती है और जीना मुश्किल हो जाता है। अजीब चक्कर है। जीतना जीने के लिए जरूरी मालूम पड़ता है, और जीतने में मौत आती है और जीना मुश्किल हो जाता है।
लेकिन इसी विशियस सर्किल में, दुष्चक्र में, पिछले 3-4 हजार वर्ष का इतिहास आदमी का, घूमते-घूमते आखिरी इसी जगह, क्लाइमैक्स पर आ गया है, जहां कि विश्वयुद्ध की पूरी संभावना खड़ी हो गयी है।

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