या तो विश्वयुद्ध होगा और सारी मनुष्यता समाप्त होगी। और या फिर अब तक
मनुष्य-जाति के दूसरे हिस्से ने कोई भी कंट्रीब्यूशन मनुष्य की सभ्यता का
निर्माण करने में, मनुष्य को जीने में, सहयोग देने में, जो आधी दुनिया अब तक
चुपचाप खड़ी रही है, उसे कुछ करना पड़ेगा। और एक नयी सभ्यता को, जो पुरुष
प्रधान न हो, एक नयी सभ्यता को, जो स्त्री के हृदय और स्त्री के गुणों पर खड़ी
होती हो, उसको जन्म देना पड़ेगा।
नीत्शे ने बहुत क्रोध से यह बात लिखी है कि मैं बुद्ध को और क्राइस्ट को
स्त्रैण मानता हूं, बूमिनिस्ट मानता हूं। यह उसने गाली दी है बुद्ध को और
क्राइस्ट को। अगर वह गांधी को जानता होता तो गांधी के बाबत भी यही कहता कि
तीनों के तीनों आदमी ठीक अर्थों में पुरुष नहीं हैं। उसने यह सोचा होगा कि
किसी पुरुष को स्त्री कह देने से और कोई बड़ी गाली क्या हो सकती है?
लेकिन पुरुष होना ही आज-वह जो पुरुष की आज तक की प्रगति रही है, उसमें होना
आज-संकट, क्राइसिस पैदा कर दिया है। आज खोजबीन करनी जरूरी है कि स्त्री के
चित्त से क्या सभ्यता का आधार, मूल आधार रखा जा सकता है? क्या यह हो सकता है?
क्या हम दूसरी तरफ भी देखें? और ध्यान करें कि क्या उस तरफ से भी जीवन की नयी
दिशा में विकास के नए स्रोत मनुष्यता का एक नया इतिहास रखा जा सकता है?
मुझे लगता है कि रखा जा सकता है। और अगर नहीं रखा जा सकता है तो फिर पुरुष के
हाथ में अब आगे कोई भविष्य नहीं है, वह अपने अंतिम क्षण पर आ गया है।
लेकिन स्त्रियों को कोई खयाल नहीं है! या तो स्त्रियां गुलाम हैं पुरुष की या
स्त्रियां नंबर 2 के पुरुष बनने की कोशिश में संलग्न हैं! दोनों ही हालतें
बुरी हैं। गुलामी की, स्लेवरी की हैं। भारत जैसे मुल्कों में स्त्रियों की
कोई आवाज नहीं। अपनी कोई आत्मा नही। भारत में स्त्री का अपना कोई व्यक्तित्व
नहीं। उसकी कोई पुकार नहीं। उसका कोई होना नहीं। वह न होने के बराबर है।
हालांकि पूरे देश का विचार कभी भी पुरुष चित्त के अनुकूल नहीं रहा, क्योंकि
भारत को जिन लोगों ने प्रभावित किया, उन्होंने जीवन के बहुत कोमल गुणों पर
जोर दिया। बुद्ध ने करुणा पर, महावीर ने अहिंसा पर। उन्होंने जोर दिया जीवन
के प्रेम तत्त्व पर। लेकिन उनकी आवाज गूंज कर खोती रही। यह किसी को खयाल नहीं
आया कि यह आवाज अगर स्त्रियां पकड़ लेंगी तो ही सफल हो सकती हैं, अन्यथा यह
आवाज सफल नही हो सकती।
अगर पुरुष प्रेम की बात भी करेगा तो अहिंसा से आगे नहीं जा सकता। और इसे थोड़ा
समझ लेना। अहिंसा का मतलब होता है, हम हिंसा नही करेंगे। यह निगेटिव बात है।
हम किसी को चोट नही पहुंचाएंगे। अहिंसा से आगे पुरुष का जाना मुश्किल है। वह
या तो हिंसा कर सकता है या अहिंसा कर सकता है। लेकिन प्रेम का उसे सूझता ही
नही! प्रेम पाजिटिव बात है अहिंसा का मतलब है, हम दूसरे को दुःख नहीं
पहुंचाएंगे। एक बात है कि हम दूसरे को दुख नहीं पहुंचाएंगे, यही हमारे जीवन
का सूत्र होगा। चाहे एक-दूसरे को कितना ही दुःख पहुंचे, हम अपना सुख पाएंगे।
यही जीवन की आधार-शिला होगी। एक सूत्र तो यह है पुरुष का।
फिर पुरुष अगर बहुत ही सोच-समझ और विचार का उपयोग करता है, तो इससे उल्टे
सूत्र पर पहुंचता है। वह कहता है, हम दूसरे को दुःख नही पहुचाके। लेकिन सी का
चित्त अहिंसा से राजी नहीं हो सकता। स्त्री का चित्त कहता है प्रेम।
प्रेम का अर्थ है : हम दूसरे को सुख पहुंचाएंगे।
इसलिए अहिंसा ठीक अर्थों में हिंसा का विरोध नहीं है। सिर्फ हिंसा का अभाव
है। हिंसा का ठीक विरोध प्रेम है। क्योंकि हिंसा कहती है, हम दूसरे को दुःख
पहुंचाएंगे, यही हमारे सुख का मार्ग है।
प्रेम कहता है, हम दूसरे को सुख पहुंचाएंगे, यही हमारे सुख का मार्ग है।
अहिंसा बीच में है, और अहिंसा कहती है, हम दूसरे को दुःख नही पहुचाएंगे।
अहिंसा बहुत इम्पोटेंट है। अहिंसा बीच में अटक जाती है, बहुत आगे नही जाती,
वह पुरुष को हिसा करने से रोक लेती है। लेकिन प्रेम करने तक नही पहुंचती।
हिंदुस्तान ने अहिंसा की तो बात की। लेकिन...क्योंकि पुरुषों ने बात की थी,
वह भी बहुत ठीक। वे अहिंसा तक की बात कर सके। पश्चिम के पुरुषों से उन्होंने
एक कदम बहुत आगे उठाया। स्त्री के हृदय की तरफ एक कदम आगे बढ़ाया। लेकिन आखिर
पुरुष कितने दूर जा सकते हैं? वह बात अहिंसा पर आकर अटक गई।
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