लेकिन पुरुष इसकी निंदा नहीं करेगा। क्योंकि स्त्रियां पुरुष जैसी हो रही हैं
पुरुष को क्या चिंता? आपने हमेशा सुना होगा अगर कोई पुरुष स्त्रियों जैसे ढंग
से रहे तो हम लोग कहेंगे नामर्द। उसकी निंदा होगी। लेकिन अगर कोई स्त्री
पुरुषों जैसी रहे तो कहेंगे, 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।'
इज्जत देंगे उसको। स्त्रियां अगर पुरुषों जैसे ढंग अख्तियार करें तो उनको
इज्जत मिलेगी और पुरुष अगर स्त्रियों जैसे ढंग अख्तियार करें तो उनका अपमान
होगा। पुरुष को भी उससे मजा आता है कि स्त्री पुरुष जैसे होने की कोशिश कर
रही है। इसका अर्थ है कि उसने हमारी श्रेष्ठता फिर स्वीकार कर ली।
कल तक वह पति के रूप में श्रेष्ठता स्वीकार करती थी, तब भी हम सुपीरियर,
मालिक थे। अब भी हम सुपीरियर हैं। क्योंकि हमारे जैसे होने की कोशिश कर रही
है। और ध्यान रहे, स्त्री कितने ही जैसी हो जाए कार्बन कापी से ज्यादा नहीं
हो सकती। कैसे हो सकती है! कैसे हो सकती है स्त्री पुरुष जैसी? और कार्बन
कापी फिर छाया रह जाएगी।
यह बड़े मजे की बात है कि हिंदुस्तान में पुरुष ने जबर्दस्ती स्त्री को छाया
बना दिया। पश्चिम की स्त्री अपने हाथ से मेहनत करके छाया बनी जा रही है। क्या
कोई तीसरा रास्ता नहीं है? ये दोनों बातें स्त्री जाति के लिए खतरनाक हैं। ये
दोनों बातें प्रतिक्रियावादी हैं रिएक्शनरी हैं। स्त्री को जिंदगी में
क्रांति चाहिए। पश्चिम में क्रांति भटक गई और विद्रोह हो गई है। विद्रोह
क्रांति नहीं है। बगावत क्रांति नहीं है।
क्रांति का मतलब है : एक नए व्यक्तित्व का उद्घाटन।
बगावत का मतलब है : पुराने व्यक्तित्व को तोड़ देना है, इसकी बिना फिक्र किए
कि नया व्यक्तित्व कुछ बनता है कि नहीं बनता है।
बगावत क्रोध है, क्रांति विचार है।
बगावत कर देना बहुत आसान है। क्रांति करना बहुत सोच-विचार और चिंतन की बात
है।
भारत की स्त्री को भी पश्चिम की स्त्री की दौड़ पकड़ेगी, क्योंकि भारत के पुरुष
को पश्चिम के पुरुष की दौड़ पकड़ेगी। उसी के पीछे स्त्री भी जाएगी, आज नहीं कल।
वह उसने होना शुरू कर दिया है। वह पुरुष के साथ पुरुष जैसा होने की दौड़ में
शामिल हो गयी है। आज नहीं कल भारत में भी वही होगा जो पश्चिम में हो रहा है।
पश्चिम में जो हो गया है, ठह इतना दुखद है कि अब भारत में उसको फिर दोहरा
लेना एक बहुत बढ़िया मौका खो देना है। एक परिवर्तन का एक ट्रांजिशन का मौका खो
देना है। एक बदलाहट का वक्त आया है और फिर बदलाहट में हम वही गलती कर ले रहे
हैं। वही गलती, जिसमें कुछ फर्क नहीं पड़ेगा। वही भूल फिर हो जाएगी।
सी० एम० जोड ने कहीं लिखा है, जब मैं पैदा हुआ था होम्स थे, मेरे देश में। घर
थे। अब सिर्फ हाउसेज हैं। अब सिर्फ मकान। स्वभावतः अगर स्त्री पुरुष जैसी हो
जाती है, तब होम जैसी चीज समाप्त हो जाएगी। घर जैसी चीज समाप्त हो जाएगी।
मकान रह जाएंगे। मकान रह जाएंगे, 'क्योंकि मकान घर बनता था एक व्यक्तित्व से
स्त्री के। वह खो गया। अब ठीक वह पुरुष जैसी कलह करती है! पुरुष जैसी झगड़ती
है! पुरुष जैसी बात करती है! विवाद करती हें! वह सब ठीक पुरुष जैसा कर रही
है!
लेकिन उसे पता नहीं है कि उसकी आत्मा कभी भी यह करके तृप्त नहीं हो सकती।
क्योंकि आत्मा तृप्त होती है वही होकर, जो होने को आदमी पैदा हुआ है। एक
गुलाब गुलाब बन जाता है तो तृप्ति आती है। एक चमेली, चमेली बन जाती है तो
तृप्ति आती है। वह तृप्ति फ्लॉवरिंग की है। हमारे भीतर छिपा है-वह खिल जाए
पूरा खिल जाए तो आनंद उपलब्ध होता है।
स्त्री आज तक कभी आनंदित नही रही, न पूरब के मुल्कों में, न पश्चिम के
मुल्कों में। पूरब के मुल्कों में वह गुलाम थी, इसलिए आनंदित नही हो सकी;
क्योंकि आनंद बिना स्वतंत्रता के कभी उपलब्ध नहीं होता है।
सारे आनंद के फूल स्वतंत्रता के आकाश में खिलते हैं।
ध्यान रहे, अगर जी आनंदित नहीं है तो पुरुष कभी आनंदित नहीं हो सकता है। वह
लाख सिर पटके। क्योंकि समाज का आधा हिस्सा दुःखी है। घर का केंद्र दुःखी है।
वह दुःखी केंद्र अपने चारों तरफ दुःख की किरणें फेंकता रहता है। और दुख के
केंद्र की किरणों में सारा व्यक्तित्व समाज का, दुःखी हो जाता है।
और मैं आपसे कहना चाहता हूं, जितना दुःख होता है, उतनी चिंता शुरू हो जाती
है। क्यों? क्योंकि दुःखी आदमी दूसरे को दुःखी करने में आतुर होता है।
क्योंकि दुःखी आदमी फिर किस्त्री को सुखी देखना नहीं चाहता। दुःखी आदमी चाहता
है, दूसरे को दुःख हो दुःखी आदमी का एक ही सुख होता है, दूसरे को दुःख दे
देने का सुख।
स्त्री के दुख ने सारे समाज के जीवन को दुःख की छाया से भर दिया है।
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