आज स्त्री को शादी करके ले जाते हैं एक सज्जन। अगर उनका नाम कृष्णचंद्र मेहता
है तो उनकी पत्नी मिसेज कृष्णचंद्र मेहता हो जाती है। लेकिन कभी उससे उल्टा
देखा कि इंदुमती मेहता को एक सज्जन प्रेम करके, ब्याह कर लाए हों और उनका नाम
मि० इंदुमती मेहता हो जाए? वह नहीं हो सकता है। लेकिन क्यों नहीं हो सकता?
नहीं, वह नहीं हो सकता, क्योंकि हमारी यह सिर्फ
व्यवहार की बात नहीं है, उसके पीछे पूरा हमारे जीवन को देखने का ढंग छिपा हुआ
है।
स्त्री पुरुष के पीछे आकर पुरुष का अंग हो जाती है। वह मिसेज हो जाती है।
लेकिन पुरुष स्त्री का अंग नहीं होता! स्त्री पुरुष का आधा अंग है। लेकिन
पुरुष सी का अंग नहीं है! इसलिए पुरुष मरता है तो स्त्री को सती होना चाहिए।
आग में जल जाना चाहिए। वह उसका अंग है। उसको बचने का हक कहां है?
हिंदुस्तान में हजारों वर्षों में कितनी लाखों स्त्रियों को आग में जलाया,
उसका हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। बहुत मुश्किल है। और किस पीड़ा से उन
स्त्रियों को गुजरना पड़ा है, इसका हिसाब लगाना मुश्किल है। फिर भी बड़ी कृपा
थी, जो आग में जल गई उन स्त्रियों के लिए।
लेकिन जब से आग में जलना बंद हो गया है तो करोड़ों विधवाओं को हम रोके हुए
हैं। उनका जीवन आग में जलने से बदतर है। सती की प्रथा विधवा की प्रथा से
ज्यादा बेहतर थी। आदमी एक बार में मर जाता है। खत्म हो जाता है। आखिर एक बार
में मरना फिर भी बहुत दयापूर्ण है। बजाय 4०-5० साल धीरे-धीरे मरने के,
अपमानित होने के।
जिंदगी में जहां प्रेम की कोई संभावना न रह जाए, उस जीवन को जीवित कहने का
क्या अर्थ है?
और यह ध्यान रहे कि पुरुष के लिए प्रेम 24 घंटे में आधी घड़ी भर की बात है।
उसके लिए और बहुत काम हैं। प्रेम भी एक काम है। प्रेम से भी निपटकर दूसरे
कामों में वह लग जाता है। स्त्री के लिए प्रेम ही एकमात्र काम है। और सारे
काम उसी प्रेम से निकलते हैं और पैदा होते हैं।
तो अगर पुरुष को विधुर रखा जाए तो उतना टार्चर नहीं है, जितना स्त्री को
विधवा रखना अत्याचार है। उसे 24 घंटे प्रेम की जंजीर है। प्रेम गया-उस जंजीर
के सिवाय कुछ नहीं रह गया। और दूसरे प्रेम की संभावना समाज छोड़ता नहीं। लेकिन
हजारों साल तक हम उसे जलाते रहे और कभी किसी ने न सोचा!
अगर कोई था कि स्त्रियों को क्यों जलना चाहिए आग में? तो पुरुष कहते, उसका
प्रेम है, वही जी नहीं सकती पुरुष के बिना। लेकिन किसी पुरुष को प्रेम नहीं
था इस मुल्क में कि वह किसी स्त्री के लिए सती हो जाते? वह सवाल ही नहीं है।
वह सवाल ही नहीं उठाना चाहिए। क्योंकि सारे धर्म-ग्रंथ पुरुष लिखते हैं अपने
हिसाब से लिखते हैं अपने स्वार्थ से लिखते हैं। स्त्रियों का लिखा हुआ न
ग्रंथ है, न स्त्रियों का मनु है, न स्त्रियों का याज्ञवल्ल है! स्त्रियों का
कोई स्मृतिकार नहीं स्त्रियों का कोई धर्म-ग्रंथ नहीं! स्त्रियों का कोई
सूत्र नहीं! उनकी कोई आवाज! पूरब की स्त्री तो एक गुलाम छाया है, जो पति के
आगे-पीछे घूमता रहती है।
पश्चिम की स्त्री ने विद्रोह किया है। और मैं कहता हूं कि अगर छाया की तरह
रहना है तो उससे बेहतर है वह विद्रोह। लेकिन वह विद्रोह बिल्कुल गलत रास्ते
पर चला गया। वह गलत रास्ता यह है कि पश्चिम की स्त्री ने विद्रोह का मतलब यह
लिया है कि ठीक पुरुष जैसी वह भी खड़ी हो जाए! पुरुष जैसी वह हो जाए!
पश्चिम की स्त्री पुरुष होने की दौड़ में पड़ गयी। वह पुरुष जैसे वस्त्र
पहनेगी, पुरुष जैसे बाल कटाएगी, पुरुष जैसा सिगरेट पीना चाहेगी, पुरुष जैसा
सड़कों पर चलना चाहेगी, पुरुष जैसा अभद्र शब्दों का उपयोग करना चाहेगी। वह
पुरुष के मुकाबले खड़ी हो जाना चाहती है।
एक लिहाज से फिर भी अच्छी बात है। कम से कम बगावत तो है। कम से कम हजारों साल
की गुलामी को तोड़ने का तो खयाल है। लेकिन गुलामी ही नहीं तोड़नी है। क्योंकि
गुलामी तोड़कर भी कोई कुएं में से खाई में गिर सकता है।
पश्चिम की स्त्री इसी हालत में खड़ी हो गई। वह जितना अपने को जैसा बनाती जा
रही है, उतना ही उसका व्यक्तित्व फिर खोता चला जा रहा है। भारत में वह छाया
बनकर खत्म हो गई। पश्चिम में वह नंबर 2 का पुरुष बनकर खत्म होती जा रही है।
उनका अपना व्यक्तित्व वहां भी नहीं रह जाएगा।
यह ध्यान रहे, स्त्री के पास एक अपने तरह का एक व्यक्तित्व है। जो पुरुष से
बहुत भिन्न है, बहुत विरोधी, बहुत अलग, बहुत दूसरा है। उसका सारा आकर्षण उसकी
जीवन की सारी सुगंध, उसके अपने होने में है, उसके निज होने में है। अगर वह
अपनी निजता के बिंदु से च्युत होती है और पुरुष जैसे होने की दौड़ में लग जाती
है तो यह बात इतनी बेहूदी होगी, जैसे कोई परुष स्त्रियों के कपड़े पहनकर दाढ़ी
मूंछ घुटाकर स्त्रियों जैसा बनकर घूमने लगता है तो वह बेहूदा हो जाता है। यह
बात इतनी ही बेहूदी है।
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