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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


अगर सारी दुनिया की स्त्रियां एक बार तय कर लें कि भाड़ में जाने दें रूस को, अमेरिका को। सारी दुनिया की स्त्रियां एक बार तय कर लें युद्ध नहीं होगा। दुनिया का कोई राजनीतिक युद्ध में कभी किसी को नहीं घसीट सकता। सिर्फ स्त्रियां तय कर लें, युद्ध अभी नहीं होगा, तो नहीं हो सकता है। क्योंकि कौन जाएगा युद्ध पर? कोई बेटा जाता है, कोई पति जाता है, कोई बाप जाता है। स्रियां एक बार तय कर ले।
लेकिन स्त्रियां पागल हैं। युद्ध होता है तो टीका करती हैं कि जाओ युद्ध पर! पाकिस्तानी मां पाकिस्तानी बेटे के माथे पर टीका करती है कि जाओ युद्ध पर! हिंदुस्तानी मां हिंदुस्तानी बेटे के माथे पर टीका करती है कि जाओ बेटे युद्ध पर जाओ।
पता चलता है कि स्त्री को कुछ पता नहीं कि क्या हो रहा है। वह पुरुष के जाल में सिर्फ एक खिलौना हर जगह एक खिलौना बन जाती है। चाहे पाकिस्तानी बेटा मरता हो और चाहे हिंदुस्तानी किसी मां का बेटा मरता है। यह स्त्री को समझना होगा। और चाहे रूस का पति मरता हो चाहे अमेरिका का। स्त्री

को समझना होगा उसका पति मरता है।
और अगर सारी दुनिया की स्त्रियों को एक खयाल पैदा हो जाए कि अब हमें अपने पति को, अपने बेटे को, अपने बाप को युद्ध पर नहीं भेजना है, तो फिर पुरुष की लाख कोशिश और राजनीतिकों की हर चेष्टा व्यर्थ हो सकती है। युद्ध नहीं हो सकता है।
यह स्त्री की इतनी बड़ी शक्ति है, लेकिन उसने उसका कोई उपयोग नहीं किया। उसने कभी कोई आवाज नहीं की, उसने कोई फिक्र नहीं की। वह आदमी ने, पुरुष ने जो रेखाएं खीची हैं राष्ट्रों की, उनको वह भी मान लेती है।
प्रेम कोई रेखाएं नहीं मान सकता, हिंसा रेखाएं मानती है।
हम कहते हैं भारतमाता! भारतमाता जैसी कोई चीज दुनिया में नही है। अगर है भी कोई तो पृथ्वीमाता जैसी कोई चीज हो सकती है? भारतमाता पुरुष की ईजाद है! अपने हाथ से उसने कीलें ठोंक कर झंडे गाड़ दिए हैं! और कहा कि यह भारत अलग!
लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि स्त्री के मन में आज भी और हमेशा से कभी भी सीमा नहीं रही है, उन अर्थों में जिन अर्थों में पुरुष के मन में सीमा है। क्योंकि जहां भी प्रेम है, वहां सीमा नहीं होती। सारी दुनिया की स्त्रियों को एक तो बुनियादी यह खयाल जाग जाना चाहिए कि हम एक नई संस्कृति को, एक नए समाज को, एक नई सभ्यता को जन्म दे सकती हैं-जो पुरुष का आधार है, उसके ठीक विपरीत आधार रखकर।
भारत में यह बहुत सुविधा से हो सकता है। भारत में यह रूपांतरण बहुत आसानी से हो सकता है। तो पहली तो बात यह है कि दुनिया की स्त्रियों की एक शक्ति और एक आवाज एक आत्मा निर्मित होनी चाहिए। और वह दो तरह की बगावत करे। पुरुष की सारी संस्कृति को कहे कि गलत है। और वह गलत है। अधूरी है और खतरनाक है।
दूसरी बात स्त्री के मन में जो प्रेम है, उस प्रेम का भी पूरा विकास नहीं हो सका है। पुरुष ने उस पर भी दीवालें बांधी हैं। उस पर भी उसने कारागृह खड़ा किया है कि प्रेम की इतनी सीमा है कि इससे आगे मत जाने देना। प्रेम से पुरुष बहुत भयभीत है। वह प्रेम पर पच्चीस रुकावटें डालता है। कारागृह बनाता है। उस कारागृह ने दुनिया में स्त्री के प्रेम को विकसित नहीं होने दिया फैलाने नहीं दिया। उस सुगंध से दुनिया को भरने नहीं दिया। स्त्री को इस तरह भी बगावत करनी जरूरी है कि वह कहे कि प्रेम पर सीमाएं हम तोडेंगे।
प्रेम की कोई सीमा नहीं है और प्रेम की अपनी पवित्रता है।

सारी सीमाएं उस पवित्रता को नष्ट करती हैं और गंदा करती हैं। उस सीमा को फैलाना है। उसकी सीमा बढ़नी चाहिए फैलनी चाहिए। अगर वह फैलती है तो जैसे पॉजेसिव पुरुष की एक प्रवृत्ति है-पॉजेस करने की...।
कभी आपने खयाल किया, पुरुष की सारी प्रवृत्ति है, इकट्ठा करो। मालिक बन जाओ। स्त्री की सारी प्रवृत्ति है, दे दो। मालकियत छोड़ दो। किसी को दे दो। सी का सारा आनंद दे देने में है और पुरुष का सारा आनंद कब्जा कर लेने में। यह कब्जा करनेवाला पुरुष ही दुनिया में युद्ध का कारण बना है।
अगर दुनिया में कभी भी हमें गैर-युद्ध वाली दुनिया बनानी हो तो ध्यान रखना पड़ेगा, इकट्ठा कर लेना, पांजेस कर लेना, मालिक बन जाना, इस प्रवृत्ति को जगह न दे देने की हिम्मत जुटानी पड़ेगी। नहीं तो...।

मैंने सुना है एक छोटा-सा गीत रवींद्रनाथ ने लिखा है। और मुझे बहुत प्रीतिकर लगी वह कहानी, जो गीत में उन्होंने गायी है। गाया है कि एक भिखारी एक दिन सुबह अपने घर के बाहर निकला। त्योहार का दिन है। आज गांव में बहुत भिक्षा मिलने की संभावना है। वह अपनी झोली में थोड़े-से दाने डालकर चावल के, बाहर आया।
चावल के दाने उसने डाल दिए हैं अपने झोली में। क्योंकि झोली अगर भरी दिखाई पड़े तो देने वाले को आसानी होती है। उसे लगता है किसी और ने भी दिया है। सब भिखारी अपने हाथ में पैसे लेकर अपने घर से निकलते हैं ताकि देने वाले को संकोच मालूम पड़े कि नहीं दिया तो अपमानित हो जाऊंगा-और लोग दे चुके हैं।
आपकी दया-आपकी दया काम नहीं करती भिखारी को देने में। आपका अहंकार काम करता है-और लोग दे चुके हैं और मैं कैसे न दूं।
वह डालकर निकला है थोड़े-से दाने। थोड़े-से दाने उसने डाल रखे हैं चावल के। बाहर निकला है। सूरज निकलने के करीब है। रास्ता सोया है। अभी लोग जाग रहे हैं। देखा है उसने, राजा का रथ आ रहा है। स्वर्ण रथ-सूरज की रोशनी मे चमकता हुआ।
उसने कहा, धन्य भाग्य मेरे! भगवान को धन्यवाद। आज तक कभी राजा से भिक्षा नहीं मांग पाया, क्योंकि द्वारपाल बाहर से ही लौटा देते। आज तो रास्ता रोककर खड़ा हो जाऊंगा! आज तो झोली फैला दूंगा। और कहूंगा महाराज! पहली दफा भिक्षा मांगता हूं। फिर सम्राट् तो भिक्षा देंगे। तो कोई ऐसी भिक्षा तो न होगी। जन्म-जन्म के लिए मेरे दुःख पूरे हो जाएंगे। वह कल्पनाओं में खोकर खड़ा हो गया। 

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