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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


रथ आ गया। वह भिखारी अपनी झोली खोले, इससे पहले ही राजा नीचे उतर आया। राजा को देखकर भिखारी तो घबड़ा गया और राजा ने अपनी झोली अपना वस्त्र भिखारी के सामने कर दिया। तब तो वह बहुत घबड़ा गया। उसने कहा आप! और झोली फैलाते हैं?
राजा ने कहा ज्योतिषियों ने कहा है कि देश पर हमले का डर है। और अगर मैं जाकर आज राह पर भीख मांग लूं तो देश बच सकता है। वह पहला आदमी जो मुझे मिले, उसी से भीख मांगनी है। तुम्हीं पहले आदमी हो। कृपा करो। कुछ दान दो। राष्ट्र बच जाए।
उस भिखारी के तो प्राण निकल गए। उसने हमेशा मांगा था। दिया तो कभी भी नहीं था। देने की उसे कहीं कल्पना ही नहीं थी। कैसे दिया जाता है, इसका कोई अनुभव नहीं था। सब मांगता था। बस मांगता था। और देने की बात आ गई, तो उसके प्राण तो रुक ही गए! मिलने का तो सपना गिर ही गया। और देने की उल्टी बात! उसने झोली में हाथ डाला। मुट्ठी भर दाने हैं वहाँ। भरता है मुट्ठी छोड़ देता है। हिम्मत नहीं होती कि दे दें।
राजा ने कहा, कुछ तो दे दो। देश का खयाल करो। ऐसा मत करना कि मना कर दो। अन्यथा बहुत हानि हो जाएगी। बहुत मुश्किल से, बहुत कठिनाई से एक दाना भर उसने निकाला और राजा के वस्त्र में डाल दिया। राजा रथ पर बैठा। रथ चला गया। धूल उड़ती रह गई।
और साथ में दुःख रह गया कि एक दाना अपने हाथ से आज देना पड़ा। भिखारी का मन देने का नहीं होता। दिन भर भीख मांगी। बहुत भीख मिली। लेकिन चित्त में दुःख बना रहा एक दाने का जो दिया था।
कितना ही मिल जाए आदमी को, जो मिल जाता है, उसका धन्यवाद नही होता, जो नहीं मिल पाया, जो छूट गया जो नहीं है पास, उसकी पीड़ा होती है।
लौटा सांझ दुःखी, इतना कभी नहीं मिला था! झोला लाकर पटका। पत्नी नाचने लगी। कहा, इतनी मिल गयी भीख! नाच मत पागल! तुझे पता नही, एक दाना कम है, जो अपने पास हो सकता था।
फिर झोली खोली। सारे दाने गिर पड़े। फिर वह भिखारी छाती पीटकर रोने लगा, अब तक तो सिर्फ उदास था। रोने लगा। देखता कि दानों की उस कतार में, उस भीड़ में एक दाना सोने का हो गया। तो वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा कि मैं अवसर चूक गया। बड़ी भूल हो गयी। मैं सब दाने दे देता, सब सोने के हो जाते। लेकिन कहां खोजूं उस राजा को? कहां जाऊं? कहां वह रथ मिलेगा? कहां राजा द्वार पर हाथ फैलाएगा? बड़ी मुश्किल हो गयी। क्या होगा? अब क्या होगा? वह तड़फने लगा।
उसकी पत्नी ने कहा, तुझे पता नहीं, शायद जो हम देते हैं, वह स्वर्ण का हो जाता है। जो हम कब्जा कर लेते हैं, वह सदा मिट्टी का हो जाता है।
जो जानते हैं, वे गवाही देंगे इस बात की; जो दिया है, वही स्वर्ण का हो गया।
मृत्यु के क्षण में आदमी को पता चलता है, जो रोक लिया था, वह पत्थर की तरह छाती पर बैठ गया है। जो दिया था जो बांट दिया था वह हल्का कर गया। वह पंख बन गया। वह स्वर्ण हो गया। वह दूर की यात्रा पर मार्ग बन गया।
लेकिन स्त्री का पूरा व्यक्तित्व देने वाला व्यक्तित्व है।
और अब तक हमने जो दुनिया बनायी है, वह लेनेवाले व्यक्तित्व की है। लेने वाले व्यक्तित्व के कारण पूंजीवाद है। लेने वाले व्यक्तित्व के कारण साम्राज्यशाही है। लेनेवाले व्यक्तित्व के कारण युद्ध है, हिंसा है।

क्या हम देनेवाले व्यक्तित्व के आधार पर कोई समाज का निर्माण कर सकते हैं? यह हो सकता है। लेकिन यह पुरुष नहीं कर सकेगा। यह स्त्री कर सकती है। और स्त्री सजग हो, कांशस हो, जागे तो कोई भी कठिनाई नहीं।
एक क्रांति बड़ी से बड़ी क्रांति दुनिया में स्त्री को लानी है। वह यह, एक प्रेम पर आधारित-देने वाली संस्कृति; जो मांगती नहीं इकट्ठा नहीं करती, देती है। ऐसी एक संस्कृति निर्मित करनी है। ऐसी संस्कृति के निर्माण के लिए जो भी किया जा सके, वह सब...उस सबसे बड़ा धर्म स्त्री के सामने आज कोई और नहीं।
यह थोड़ी-सी बात मैंने कही। पुरुष के संसार को बदल देना है आमूल। स्त्री के हृदय में जो छिपा है, उसकी छाया को फैलाना है। उस वृक्ष को बड़ा करना है, तो शायद एक अच्छी मनुष्यता का जन्म हो सकता है। स्त्री के जीवन में चेतना की क्रांति सारी मनुष्यता के लिए क्रांति बन सकती है।
कौन करेगा लेकिन यह? स्त्रियां न सोचती न विचारतीं। स्त्रियां न इकट्ठा हैं, न कोई सामूहिक आवाज है, न उसकी कोई आत्मा है! शायद पुरानी पीढ़ी नहीं कर सकेगी। लेकिन नई पीढ़ी की लड़कियां कुछ अगर हिम्मत जुटाएंगी और फिर पुरुष होने की नकल और बेवकूफी में नहीं पड़ेंगी तो यह क्रांति निश्चित हो सकती है। उनकी तरफ बहुत आशा से भरकर देखा जा सकता है।
मेरी ये सब बातें इतने प्रेम और शांति से सुनी इससे बहुत अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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