कभी हमने खयाल भी नहीं किया। जमीन पर, इतनी बड़ी पृथ्वी पर कोई तीन-साढ़े तीन
अरब लोग हैं स्त्रियां-पुरुष सब मिलाकर। किसी घर में लड़के ही लड़के पैदा हो
जाते हैं। किसी घर में लड़कियां भी हो जाती हैं। लेकिन अगर पूरी पृथ्वी का हम
हिसाब रखें तो लड़के और लड़कियां करीब-करीब बराबर पैदा होते हैं। पैदा होते
वक्त बराबर नहीं होते। लेकिन पांच छः साल में बराबर हो जाते हैं पैदा होते
वक्त १२५ लड़के पैदा होते हैं सौ लड़कियों पर। क्योंकि लड़कों का
रेसिस्टेस कम है। पच्चीस लड़के तो जवान होते-होते मर जाने वाले हैं। लड़के
ज्यादा पैदा होते हैं। लड़कियां कम पैदा होती हैं लेकिन जवाने होते-होते लड़के
और लड़कियों की संख्या दुनिया में करीब-करीब बराबर हो जाती है।
कोई बहुत गहरी व्यवस्था भीतर काम करती है। नहीं तो कभी ऐसा भी हो सकता है,
इसमें कोई दुर्घटना तो नहीं कि जमीन पर स्त्रियां हो जाएँ एकबार। या पुरुष ही
पुरुष हो जाए। यह संभावना है, अगर बिछल अंधेरे में व्यवस्था चल रही हो। लेकिन
भीतर कोई नियम काम करता है। और नियम के पीछे बायोलॉजिकल व्यवस्था है। जितने
अणु होते हैं, वीर्याणु होते हैं, उनमें आधे स्त्रियों को पैदा करने नें
समर्थ हैं, आधे पुरुषों को इसलिए कितना ही एक घर में भेद पड़े, लंबे विस्तार
पर भेद बराबर हो जाता है।
स्त्री को वह शक्तियां मिली हुई हैं जो उसे अपने काम को-और स्त्री का बड़े से
बड़ा काम उसका मां होना है। उससे बड़ा काम संभव नहीं है। और शायद मां होने से
बड़ी कोई संभावना पुरुष के लिए तो है ही नहीं। स्त्री के लिए भी नहीं है। मां
होने की संभावना हम सामान्य रूप से ग्रहण कर लेते हैं।
कभी आपने नहीं सोचा होगा इतने पेंटर हुए इतने मूर्तिकार हुए इतने चित्रकार,
इतने कवि इतने आर्किटेक्ट, लेकिन स्त्री कोई एक बड़ी चित्रकार नहीं हुई! कोई
एक सी बड़ी आर्किटेक्ट, वास्तुकला में अग्रणी नहीं हुई! कोई एक सी ने बहुत बड़े
संगीत को जन्म नहीं दिया! कोई एक ख्त्री ने कोई बहुत अद्भुत मूर्ति नहीं
काटी! सृजन का सारा काम पुरुष ने किया है। और कई बार पुरुष को ऐसा खयाल आता
है कि क्रिएटिव सृजनात्मक शक्ति हमारे पास है। स्त्री के पास कोई सृजनात्मक
शक्ति नहीं है।
लेकिन बात उल्टी है। स्त्री पुरुष को पैदा करने में इतना बड़ा श्रम कर लेती है
कि और कोई सृजन करने की जरूरत नहीं रह जाती। स्त्री के पास अपना एक क्रिएटिव
एक्ट है। एक सृजनात्मक कृत्य है, जो इतना बड़ा है कि पत्थर की मूर्ति बनाना और
एक जीवित व्यक्ति को बड़ा करना...लेकिन खी के काम को हमने सहज स्वीकार कर लिया
है। और इसीलिए स्त्री की सारी सृजनात्मक शक्ति उसके मां बनने में लग जाती है।
उसके पास और कोई सृजन की न सुविधा बचती है, न शक्ति बचती है। न कोई आयाम कोई
डायमेंशन बचता है। न सोचने का कोई सवाल है।
एक छोटे-से घर को सुंदर बनाने में-लेकिन हम कहेंगे, छोटे-से घर को सुंदर
बनाना कोई माइकल एंजलो तो पैदा नहीं हो सकता, कोई वानगाग तो पैदा नहीं हो
जाएगा। कोई इजरा पाउंड तो पैदा नहीं होगा। कोई कालिदास तो पैदा नहीं होगा। एक
छोटे-से घर को...लेकिन मैं कुछ घरों में जाकर ठहरता रहा हूं।
एक घर में ठहरता था, मैं हैरान हो गया। गरीब घर है। बहुत संपन्न नहीं है।
लेकिन इतना साफ-सुथरा इतना स्वच्छ मैंने कोई घर नहीं देखा। लेकिन उस घर की
प्रशंसा करने कोई कभी नहीं जाएगा। घर की गृहणी उस घर को ऐसा पवित्र बना रही
है कि कोई मंदिर भी उतना स्वच्छ और पवित्र नहीं मालूम पड़ता है। लेकिन उसकी
कौन फिक्र करेगा? कौन माइकेल एंजलो, कालिदास और वानगाग में उसकी गिनती करेगा?
वह खो जाएगी। वह एक ऐसा काम कर रही है, जिसके लिए कोई प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी।
क्यों वहीं मिलेगी? नहीं मिलेगी यह, यह दुनिया पुरुषों की दुनिया है।
स्त्री के विकास, स्त्री की संभावनाओं, स्त्रियों की जो पोटेंशियलिटीज हैं,
उनके जो आयाम ऊंचाइयां हैं उनको हमने गिनती में ही नहीं लिया है। अगर एक आदमी
गणित में कोई नयी खोज कर ले तो नोबल प्राइज मिल सकता है। लेकिन स्त्रियां
निरंतर सृजन के बहुत नए-नए आयाम खोजती हैं। कोई नोबेल प्राइज उनके लिए नहीं
है। वह स्त्रियों की दुनिया नहीं है। स्त्रियों को सोचने के लिए स्त्रियों को
दिशा देने के लिए उनके जीवन मेँ जो हो, उसे भी मूल्य देने का हमारे पास कोई
आधार नहीं है।
हम सिर्फ पुरुषों को आधार देते हैं! इसलिए अगर हम इतिहास उठाकर देखें तो
उसमें चोर, डकैत हत्यारे बड़े-बडे आदमी मिल जाएंगे। उसमें चंगेज खां, तैमूर
लंग और हिटलर और स्टैलिन और माओ सबका स्थान है। लेकिन उसमें हमें ऐसी
स्त्रियां खोजने में बड़ी मुश्किल पड़ जाएगी। उनका कोई उल्लेख ही नहीं है
जिन्होंने सुंदर घर बनाया हो। जिन्होंने एक बेटा पैदा किया हो और जिसके साथ
जिसे बड़ा करने में सारी मां की ताकत, सारी प्रार्थना शरा प्रेम लगा दिया हो।
इसका कोई हिसाब नहीं मिलेगा।
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