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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


जब पड़ोस का राजा विदा हो रहा था और महल की प्रशंसा कर रहा था, तब सड़क पर बैठा हुआ एक बूढ़ा भिखारी प्रशंसा सुन कर जोर से हंसने लगा। भिखारी को हंसता देख महल के सम्राट् ने पूछा, ''तू हंसता क्यों है? कोई भूल तूझे दिखायी पड़ती है?''
भिखारी ने कहा, ''एक भूल रह गयी है, महाराज! जब आप यह मकान तैयार करवाते थे, तभी मुझे लगता था कि एक भूल रह गयी है।''
सम्राट् ने कहा, ''कौन-सी भूल?'' उस भिखारी ने कहा, ''एक दरवाजा आपने रखा है, यही भूल रह गयी है। यह दरवाजा और बंद कर लें, और भीतर हो जाएं तो फिर आप बिल्कुल सुरक्षित हो जाएंगे। फिर कोई भी किसी भी हालत में भीतर नही पहुंच सकेगा।''
सम्राट् ने कहा, ''पागल, फिर तो यह मकान कब्र हो जाएगा। अगर मैं एक दरवाजा और बंद कर लूं तो मैं मर जाऊंगा भीतर। फिर तो यह महल मेरी मौत हो जाएगा।''
भिखारी ने कहा, ''इतना आपको समझ में आता है कि एक दरवाजा और बंद कर लेने से आप मर जाएंगे, तो क्या आपको यह समझ में नही आता कि जिस मात्रा मे दरवाजे आपने बंद किए है उसी मात्रा मे आप मर गए है? उसी मात्रा मे जीवन से आपके संबंध टूट गए हैं। अब एक दरवाजा बचा है, तो थोड़ा-सा संबंध बचा है। अब आप थोड़े-से जीवित हैं। इस दरवाजे को भी बंद कर देंगे, तो बिल्कुल मर जाएंगे? अब यह मकान एक कब्र की तरह है, जिसमे एक दरवाजा है। यह दरवाजा और बंद हो जाए तो कब्र पूरी हो जाएगी। और अगर आपको यह लगता है कि एक दरवाजा और बंद करने से मौत हो जाएगी, तो जो दरवाजे आपने बंद करवा दिए हैं, उन्हें खुलवा दें। और अगर मेरी बात समझे, सब दीवाल गिरवा दें, ताकि खुले सूरज के नीचे, खुले आकाश के नीचे जीवन का पूरा आनंद उपलब्ध हो सके।''
शरीर के लिए मकान जरूरी है, और शरीर के लिए दीवालें भी जरूरी है; पर आत्मा के लिए न तो मकान जरूरी है, न दीवाले जरूरी हैं। लेकिन जिनके पास शरीर को छिपाने के लिए मकान नही हैं, उन्होंने भी अपनी आत्मा को छिपाने के लिए दीवालें और मकान बना रखे हैं! जो खुले आकाश के नीचे सोते हैं, उनकी आत्माएं भी खुले आकाश में नहीं उड़तीं! जिनके शरीर पर वस्त्र नहीं हैँ, उन्होंने भी आत्मा को लोहे के वस्त्र पहना रखे है! और फिर आदमी पूछता है, हम दुःखी क्यों हैं? फिर आदमी पूछता है, हम पीड़ित फिर क्यों हैं? फिर आदमी पूछता है, आनंद कहां मिलेगा?

कभी परतंत्र चित्त को आनंद मिला है? कभी परतंत्रता में कुछ जान गया है? परतंत्र व्यक्ति कभी भी किसी भी स्थिति में सत्य को, सौंदर्य को उपलब्ध हुआ है?

मैं एक घर में मेहमान था। एक बहुत प्यारी चिड़िया उस घर के लोगों ने पिजडे में कैद कर रखी थी। चिड़िया को बाहर का जगत दिखायी पड़ता होगा, लेकिन पिंजड़े की दीवालों के भीतर बंद चिड़िया को पता भी नहीं हो सकता कि बाहर एक खुला आकाश है, और बाहर खुले आकाश में उड़ने का भी एक आनंद है। शायद वह चिड़िया उड़ने का भी खयाल भूल गयी होगी। शायद, पंख किसलिए हैं यह भी उसे पता नहीं रहा होगा। और अगर आज उसे पिंजडे के बाहर भी कर दिया जाए तो शायद वह बाहर आने से घबड़ाकी और सुरक्षित पिजड़े में वापस आ जाएगी। शायद, पंख उसे अब निरर्थक लगते होंगे। बोझ लगते होंगे। और उसे यह भी पता नहीं होगा कि खुले आकाश में सूरज की तरफ बादलों के पार उड़ जाने का भी एक आनंद हैं, एक जीवन है। अब उसे कुछ भी पता नहीं होगा।

उस चिड़िया को तो कुछ भी पता नहीं होगा-क्या हमें पता है? हमने भी अपने चारों ओर दीवालें बना रखी हैं। उन दीवालों के पार, बियांड भी जहां कोई सीमा नहीं है। जहां आग, और आगे अनंत विस्तार है। जहां कोई लोक है, सूरज है, जहां बादलों के पार आगे खुला आकाश है।
नहीं, हमें भी उनका कोई पता नहीं है। शायद हमें भी आत्मा एक बोझ मालूम पड़ती है। और हममें से बहुत-से लोग अपनी आत्मा को खो देने की हर चेष्टा करते है। शराब पीकर आत्मा को भुला देने की कोशिश करते हैं। संगीत सुनकर आत्मा को भुला देने की कोशिश करते है। किसी तरह आत्मा भूल जाए इसकी चेष्टा करते हैं। हमें अपनी आत्मा भी एक बोझ मालूम पड़ती है, जैसे पिंजड़े में बंद एक चिड़िया को उसके पंख बोझ मालूम होते हैं। लेकिन हमें पता नहीं है कि एक आकाश है, जहां आत्मा भी एक पँख बन जाती है। और आकाश की एक उड़ान है, जिस उडान की उपलब्धि का नाम है-प्रभु-परमात्मा।
धर्म मनुष्य को मुक्त करने की कला है। अगर ठीक से कहूं तो धर्म मनुष्य के जीवन में क्रांति लाने की कला है। इसलिए कायर कभी धार्मिक नहीं हो सकते। डरे हुए लोग, भयभीत लोग कभी धार्मिक नहीं हो सकते। बल्कि भयभीत और डरे लोगों ने जो धर्म पैदा किया है, वह धर्म जरा भी नहीं है। वह धर्म के बिल्कुल उल्टी चीज है। वह अधर्म से भी बदतर है। अधार्मिक आदमी भी साहसी हो सकता है। और जो आदमी साहसी है. वह बहुत दिन तक अधार्मिक नहीं रह सकता। अधार्मिक आदमी भी विचारशील होता है। और जो आदमी विचारशील है, वह बहुत दिन तक अधार्मिक नहीं रह सकता।
केशवचंद्र विवाद करने गए थे रामकृष्ण से। वे रामकृष्ण की बातों का खंडन करने गए थे, सारे कलकत्ते में खबर फैल गई थी कि चलें, केशवचंद्र की बातें सुनें, रामकृष्ण तो गांव के गंवार हैं क्या उत्तर दे सकेंगे केशवचंद्र का? केशवचंद्र तो बड़ा पंडित है!
बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। रामकृष्ण के शिष्य बहुत डरे हुए थे, कि केशव के सामने रामकृष्ण क्या बात कर सकेंगे! कहीं ऐसा न हो कि फजीहत हो जाए। सब मित्र तो डरे हुए थे, लेकिन रामकृष्ण बार-बार द्वार पर आकर पूछते थे कि केशव अभी तक आए नहीं? एक भक्त ने कहा भी, 'आप पागल होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं! क्या आपको पता नहीं कि आप दुश्मन की प्रतीक्षा कर रहे हैं? वे आकर आपकी बातों का खंडन करेंगे। वे बहुत बड़े तार्किक हैं।'
रामकृष्ण कहने लगे, 'वही देखने के लिए मैं आतुर हो रहा हूं, क्योंकि इतना तार्किक आदमी अधार्मिक कैसे रह सकता है, यही मुझे देखना है। इतना विचारशील आदमी कैसे धर्म के विरोध में रह सकता है, यही मुझे देखना है। यह असभव है।'
केशव आए, और केशव ने विवाद शुरू किया। केशव ने सोचा था, रामकृष्ण उत्तर देंगे। लेकिन केशव एक-एक तर्क देते थे और रामकृष्ण उठ-उठ कर उन्हें गले लगा लेते थे; आकाश की तरफ हाथ जोड़कर किसी को धन्यवाद देने लगते थे।

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