...लेकिन हम कहेंगे कि हम जैन हैं और कभी नही सोचेंगे कि हम महावीर के मानसिक
गुलाम हो गए! हम कहेंगे कि हम कम्युनिस्ट हैं और कभी सोचेंगे। कि हम मार्क्स
और लेनिन के मानसिक गुलाम हो गए! हम कहेंगे कि हम गांधीवादी हैं और कभी नहीं
सोचेंगे कि हम गांधी के गुलाम हो गए!
दुनिया में गुलामों की कतारें लगी हैं। गुलामियों के नाम अलग-अलग हैं? लेकिन
गुलामियां कायम हैं। मैं आपको गुलामा नहीं बदलना चाहता कि एक आदमी से आपकी
गुलामी छुड़ाकर दूसरे की गुलामी आपको पकड़ा दी जाए। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
वह वैसे ही है, जैसे लोग मरघट लाश ले जाते हैं कंधे पर रख कर तो जब एक आदमी
का कंधा दुखने लगता है, तो दूसरा आदमी अपने कंधे पर रख लेता है। थोड़ी देर में
दूसरे का कंधा दुखने लगता है, तो तीसरा अपने कंधे पर रख लेता है।
आदमी गुलामियों के कंधे बदल रहा है। अगर गाधी से छूटता है तौ मार्क्स को पकड़
लेता है; महावीर से छूटता है तो मुहम्मद को पकड़ लेता है; एक वाद से छूटता है
तो फौरन दूसरे वाद को पकड़ने का इंतजाम कर लेता है!
...लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं कि मैं कहता हूं, यह गलत है, वह गलत
है। वे पूछते हैं आप हमें यह बताइए कि सही क्या है? वे असल में यह पूछना
चाहते हैं कि फिर हम पकड़े क्या, वह हमे बताइए। जब तक हमारे पास पकड़ने को कुछ
न हो, तब तक हम कुछ छोड़ेंगे नही!
और मैं आपसे कह रहा हूं, पकड़ना गलत है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप क्या
पकड़े, मैं आपसे कह रहा हूं कि पकड़ना ही गलत है। क्लिंगिंग एज सच। चाहे वह पकड़
गाधी से हो, या बुद्ध से हो, या मुझसे हो। इससे कोई फर्क नही पड़ता। पकड़ने
वाले चित्त का स्वरूप एक ही है कि पकड़ने वाला चित्त खाली नहीं
रहना चाहता। वह चाहता है कहीं न कहीं उसकी मुट्ठी बंधी रहे। उसे कोई सहारा
होना चाहिए। और जब तक कोई आदमी किसी का सहारा खोजता है, तब तक उसकी आत्मा के
पख खुलने की स्थिति में नहीं आते। जब आदमी बेसहारा हो जाता है, सारे सहारे
छोड़ देता है, हैल्पलेस होकर खडा हो जाता है, और जानता है कि मैं बिल्कुल
अकेला हूं, कहीं किसी के कोई चरण-चिह्न नहीं हैं...।
...कहां हैं महावीर के चरण-चिह्न, जिन पर आप चल रहे हैं? कहां हैं कृष्ण के
चरण-चिह्न, जिन पर आप चल रहे हैं? जीवन खुले आकाश की भांति है, जिस पर किसी
के चरण-चिह्न किसको पकड़े हैं आप? कहां हैं कृष्ण के हाथ? कहा हैं गांधी के
चरण जिनको आप पकड़े हैं?
सिर्फ आंख बंद करके सपना देख रहे हैं। सपने देखने से कोई आदमी मुक्त नहीं
होता। न गांधी के चरण आपके हाथ में हैं न कृष्ण के, न राम के। किसी के चरण
आपके हाथ में नहीं हैं। आप अकेले खड़े हैं। आंख बंद करके कल्पना कर रहे हैं कि
मैं किसी को पकड़े हुए हूं। जितनी देर तक आप यह कल्पना किए हुए हैं उतनी देर
तक आपकी आत्मा के जागरण का अवसर पैदा नहीं होता। और तब तक आपके जीवन में वह
क्रांति नहीं हो सकती, जो आपको सत्य के निकट ले आए। न जीवन में वह क्रांति हो
सकती है कि जीवन के सारे पर्दे खुल जाएं उसका सारा रहस्य खुल जाए उसकी
मिस्ट्री खुल जाए और आप जीवन को जान सकें, और देख सकें।
बंधा हुआ आदमी आंखों पर चश्मा लगाए हुए जीता है। वह खिड़कियों में से, छेदों
में से देखता है दुनिया को। जैसे कोई एक छेद कर ले दीवाल में और उसमें से
देखे आकाश को, तो उसे जो भी दिखायी पड़ेगा वह उस छेद की सीमा से बंधा होगा वह
आकाश नहीं होगा। जिसे आकाश देखना है, उसे दीवालों के बाहर आ जाना चाहिए। और
कई बार कितनी छोटी चीजें बांध लेती हैं हमें पता भी नहीं चलता!
रवींद्रनाथ एक रात अपने बजरे में एक छोटी-सी मोमबत्ती जला कर कोई किताब पढ़ते
थे। आधी रात को जब पढ़ते-पढ़ते वे थक गए तो मोमबत्ती को फूंक मार कर उन्होंने
बुझा दिया और किताब बंद कर दी। उस रात आकाश में पूर्णिमा का चांद खिला था।
जैसे ही मोमबत्ती बुझी कि रवींद्रनाथ हैरान हो गए यह देख कर कि बजरे की
रंध-रंध से, छिद्र-छिद्र से, खिड़की से, द्वार से चंद्रमा के प्रकाश की किरणें
भीतर आ गई हैं और चारों ओर अद्भुत प्रकाश फैल गया है। वे खड़े होकर नाचने लगे।
उस छोटी-सी मोमबत्ती के कारण उन्हें पता ही नहीं चला कि बाहर पूर्णिमा का
चांद खिला है और उसका प्रकाश भीतर आ रहा है। तब उन्हें
खयाल आया कि छोटी-सी मोमबत्ती का प्रकाश किस भांति चांद के प्रकाश को रोक
सकता है। उस रात उन्होंने एक गीत लिखा। उस गीत में उन्होंने लिखा कि मैं भी
कैसा पागल था : छोटी-सी मोमबत्ती, के मद्धिम, धीमे प्रकाश में बैठा रहा और
बाहर चांद का प्रकाश बरसता था उसका मुझे कुछ पता ही न चला! मैं अपनी मोमबत्ती
से ही बंधा रहा। मोमबत्ती बुझी, तो मुझे पता चला कि बाहर, द्वार पर आलोक मेरी
प्रतीक्षा कर रहा है।
...Prev | Next...