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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


कोई गांधीवादियों को नहीं बांधे हुए हैं। गांधी तो जिंदगी भर कोशिश करते रहे कि गांधीवाद जैसी कोई चीज खड़ी न हो जाए। लेकिन गांधीवादी बिना गांधीवाद खड़ा किए कैसे रह सकते हैं! वाद चाहिए जिससे बंधा जा सके। अब वे उससे बंध गए हैं। अब उनसे पूछो, तो वे कहेंगे-कैसे छूटें? अगर आप पूछते हैं कि कैसे छूटें, तो फिर आप समझे नहीं। कोई दूसरा आपको बांधे हुए नहीं है।
कृष्ण हिंदुओं को नहीं बांधे हुए हैं-और न मुहम्मद मुसलमानों को-और न महावीर जैनों को।
कोई किसी को बांधे हुए नहीं है। ये सारे तो ऐसे लोग हैं जो छुटकारा चाहते हैं कि हर आदमी छूट जाए। लेकिन हम उनकी छायाओं को पकड़े हैं और बंधे हैं। हमें कोई बांधे हुए नहीं है, हम बंधे हुए हैं। और अगर हम बंधे हुए है तो बात साफ है : कि हम छूटना चाहें तो एकक्षण भी छोड़ने में नहीं लगता। तो एकक्षण भी गंवाने की जरूरत नहीं है। आप इस भवन के भीतर बंधे हुए आए थे। इस भवन के बाहर मुक्त होकर जा सकते हैं।
मैं अभी ग्वालियर में था। एक-ड़ेढ वर्ष पहले ग्वालियर के एक मित्र ने मुझे फोन किया कि मैं अपनी बूढ़ी मां को भी अपनी सभा में लाना चाहता हूं, लेकिन मैं डरता हूं। क्योंकि उनकी उम्र कोई नब्बे वर्ष है। चालीस वर्षों से वह दिन-रात माला फेरती रहती हैं। सोती हैं तो भी रात उनके हाथ में माला होती है। और आपकी बातें कुछ ऐसी हैं कि कहीं उनको चोट न लग जाए। मेरा समझ में नही आता कि इस उम्र में उनको लाना उचित है या नहीं...?
मैंने उन मित्र को खबर दी कि आप जरूर ले आए। क्योंकि इस उम्र में अगर न लाए तो हो सकता है, जब दुबारा मैं आऊं तो आपकी मां से मेरा मिलना भी न हो पाए। इसलिए जरूर ले आएं। आप चाहे आएं न आएं मां को जरूर ले आएं।
वे मां को लेकर आए। दूसरे दिन उन्होंने मुझे खबर की कि बड़ी चमत्कार की बात हो गयी। जब मैं आया तो आप माला के खिलाफ ही बोलने लगे। तो मुझे लगा कि यह आपको खबर करना तो ठीक नहीं हुआ। मैंने आपसे कहा कि मेरी
मां माला फेरती है, तो मुझे लगा कि आप माला के खिलाफ ही बोलने लगे! तो मुझे लगा कि आप मेरी मां को ही ध्यान में रखकर बोल रहे हैं। उसको नाहक चोट लगेगी, नाहक दुःख होगा। मैं डरा, पूरे रास्ते गाड़ी में मैंने मां से पूछा भी नहीं कि तेरे मन पर क्या असर हुआ?

घर जाकर मैंने पूछा कि कैसा लगा, तो मेरी मां ने कहा, ''कैसा लगा? मैं माला वहीं मीटिंग में ही छोड़ आयी। चालीस साल का मेरा भी अनुभव कहता है कि माला से मुझे कुछ भी नहीं मिला। लेकिन इतनी हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी कि उसे छोड़ दूं। वह बात मुझे खयाल आ गई, माला तो मुझे पकड़े हुए नहीं थी, मैं ही उसे पकड़े हुए थी। मैने उसें छोड़ दिया तो वह छूट गयी!''

तो आप यह मत पूछना कि कैसे हम छोड़ दें। कोई आपका पकड़े हुए नहीँ हैं, आप ही मुट्ठी बांधे हुए हैं। छोड़ दें और वह छूट जाता है। और छूटते ही आप पाएंगी कि चित्त हल्का हा गया, निर्भार हो गया-तैयार हो गया-एक यात्रा के लिए।
इन चार दिनों में उस यात्रा के और सूत्रों पर हम बात करेंगे, लेकिन पहला सूत्र है-नो क्लिंगिंग, कोई पकड़ नहीं। सब पकड़ छोड़ देनी है। पकड़ छोड़ते हो मन तैयार हो जाता है। पकड़ छोडते हो मन पख फैला देता है। पकड़ छोड़ते ही मन सत्य की यात्रा के लिए आकांक्षा करने लगता है।
और जो मत से बंधे हैं, वे डरते हैं सत्य को जानने से। मतवादी हमेशा सत्य को जानने से डरता है। क्योंकि जरूरी नहीं है कि सत्य उसके मत के पक्ष में हो। सत्य विपरीत भी पड़ सकता है। मतवादी अपने मत को नहीं छोड़ना चाहता, इसलिए सत्य को जानने से वह वंचित रह जाता है।

मैं निरतर कहता हूं, दो तरह के लोग हैं दुनिया में। एक वे लोग हैं जो चाहते है सत्य हमारे पीछे चले और दूसरे वे है जो सत्य के पीछे खड़े हो जाते हैं। मतवादी सत्य को अपने पीछे चलाना चाहता हैं। वह कहता है कि मेरा मत सही है। और सत्यवादी कहता है, मैं सत्य के पीछे खडा हो जाऊंगा। मेरे मत का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य है सत्य का।
जिसको सत्य के पीछे खड़ा होना है, उसे मत छोड़ देना पड़ेगा, क्योंकि सत्य को जानने में मत बाधा देगा, रोकेगा और अड़चन डालेगा।
अगर आप हिंदू हैं, तो आप धार्मिक नहीं हो सकते हैं। अगर आप ईसाई हैं, तो आप धार्मिक नहीं हो सकते है। अगर धार्मिक होना है, तो ईसाई, हिंदू और मुसलमान होने से मुक्ति आवश्यक है।
अगर जीवन के सत्य को जानना है, तो जीवन के संबंध में जो मत पकड़ा है, उससे मुक्ति आवश्यक है।
...वह बूढ़ी औरत अद्भुत थी। छोड़ गयी माला। माला की कीमत चार आना रही होगी। आप जो सिद्धांत पकड़े हैं उसकी कीमत चार आना भी नहीं है। उसको ऐसे ही छोड़ा जा सकता है, आंख मूंद कर। और छोड़कर आप नुकसान में नहीं पड़ जाएंगे। छोड़ते ही आप पाएंगे कि जो छूट गया है, वह सत्य की तरफ जाने में बाधा था। और पहली बार आंख खुलेगी कि मैं जीवन को वैसा देख सकूं, जैसा वह है।
यह पहला सूत्र है। इस संबंध में जो भी प्रश्न हों, वह आप लिखकर दे देंगे, तथा अन्य प्रश्न भी लिखकर दे देंगे, ताकि सुबह की चर्चाओं में आपके प्रश्नों की बात हो सके-और सांझ को मैं और सूत्रों की बात करूंगा।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना। उसके लिए बहुत अनुगृहित हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हू। मेरे प्रणाम स्वीकार करे।

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