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भीड़ से, समाज से-दूसरों से मुक्ति
मेरे प्रिय आत्मन,
मनुष्य का जीवन जैसा हो सकता है, मनुष्य जीवन में जो पा सकता है, मनुष्य जिसे
पाने के लिए पैदा होता है-वही उससे छूट जाता है-वही उसे नहीं मिल पाता है कभी
किसी एक के जीवन में किसी कृष्ण किसी राम किसी बुद्ध किसी गांधी के जीवन में
सौंदर्य के फूल खिलते हैं और सत्य की सुगंध फैलती है। लेकिन, शेष सारी
मनुष्यता ऐसे ही मुरझा जाती है और नष्ट हो जाती है।
कौन-सा दुर्भाग्य है मनुष्य के ऊपर...कौन-सी कठिनाई है? करोड़ों बीजों में से
अगर एक बीज में अंकुर आए और शेष बीज, बीज ही रहकर सड़ जाएं और समाप्त हो जाएं
तो यह कोई सुखद स्थिति नहीं हो सकती। और अगर मनुष्य जाति के पूरे इतिहास को
उठाकर देखें, तो अंगुलियों पर गिने जा सकें, ऐसे थोड़े-से मनुष्य पैदा होते
हैं जिनकी कथा इतिहास में शेष है। शेष सारी मनुष्यता की कोई कथा इतिहास में
शेष नहीं है! शेष सारे मनुष्य बिना किसी सत्य को जाने बिना किसी सौंदर्य को
जाने ही मर जाते हैं! क्या ऐसे जीवन को हम जीवन कहें?
एक फकीर का मुझे स्मरण आता है। कभी वह सम्राट् था लेकिन फिर वह फकीर हो गया
था। वह पैदा तो सम्राट् हुआ था, लेकिन फिर फकीर हो गया थ। और जिस राजधानी में
वह पैदा हुआ था'उसी राजधानी के बाहर एक झोंपड़े में
रहने लगा था। लेकिन उसके झोंपड़े पर अकसर उपद्रव होते रहते थे। जौ भी उसके
झोंपड़े पर आता, उसीसे उसका झगड़ा हो जाता! रास्ते पर था उसका झोपड़ा और गांव
से कोई चार मील बाहर था-चौराहे पर था। आने-जाने वाले राहगीर उससे बस्ती का
रास्ता पूछते, तो वह कहता, 'बस्ती हा जाना चाहते हो, तो बायीं तरफ भूलकर भी न
जाना दायी तरफ के रास्ते से जाना, तो बस्ती पहुंच जाओगे।'
राहगीर उसकी बात मानकर दायीं तरफ के रास्ते से जाते, और दो-चार मील चलकर मरघट
पर पहुंच जाते-वहां, जहां बस्ती नहीं सिर्फ कब्रें थीं। राहगीर क्रोध में
वापस लौटते और आकर फकीर से झगड़ा करते कि तुम पागल तो नहीं हो गए हो? हमने
पूछा था बस्ती का रास्ता और तुमने हमें मरघट मे भेज दिया?
तो वह फकीर हंसने लगता और कहता तुम्हें मेरी परिभाषा मालूम नहीं है। मैं तो
मरघट को बस्ती ही कहता हूं। क्योंकि तुम जिसे बस्ती कहते हो, उसमें तो कोई भी
ज्यादा दिन बसता नहीं। कोई आज उजड़ जाता है और कोई कल। वहां तो मौत रोज आती है
और किसी न किसी को उठा ले जाती है। वह जिसे तुम बस्ती कहते हो, वह तो मरघट
है। वहां तो मृत्यु की प्रतीक्षा करनेवाले लोग बसते हैं। वे प्रतीक्षा करते
रहते हैं मृत्य की। मैं तो उसी को बस्ती कहता हूं जिसे तुम मरघट कहते हो;
क्योंकि वहां जो एकबार बस गया, बस गया फिर उसकी मौत नहीं होती। बस्ती मैं उसे
कहता हूं, जहां बस गए लोग फिर उजड़ते नहीं, वहां से हटते नही।
लगता है पागल रहा होगा वह फकीर। लेकिन क्या दुनिया के सारे समझदार लोग पागल
रहे हैं? दुनिया के सारे ही समझदार लोग एक ही बात कहते रहे हैं ?? जिसे हम
जीवन समझते हैं वह जीवन नहीं है। और चूंकि हम गलत जीवन को जीवन समझ लेते हैं
इसलिए जिसे हम मृत्यु समझते हैं वह भी मृत्यु नहीं है। हमारा सब कुछ ही उल्टा
है। हमारा सब कुछ ही अज्ञान से भरा हुआ और अंधकार से पूर्ण है। फिर जीवन क्या
है? और उस जीवन को जानने और समझने का द्वार और मार्ग क्या है?
बुद्ध के संघ में एक बूढ़ा भिक्षु रहता था। बुद्ध ने एक दिन उस बूढ़े भिक्षु को
पूछा कि 'मित्र तेरी उम्र क्या है?' उस भिक्षु ने कहा, 'आप भली-भांति जानते
हैं फिर भी पूछते हैं? मेरी उम्र पांच वर्ष है।'
बुद्ध बहुत हैरान हुए और कहने लगे, 'कैसी मजाक करते हो?...सिर्फ पांच वर्ष!
पचहत्तर वर्ष से कम तो तुम्हारी उम्र क्या होगी, पांच वर्ष केंसे कहते हो?'
बूढ़े भिक्षु ने कहा, हां, सत्तर वर्ष भी जिया हूं, लेकिन उन्हें जीने के वर्ष
नहीं कह सकता। उसे जीवन कैसे कहूं! पिछले पांच वर्षों से ही जीवन को जाना है,
इसलिए पांच ही वर्ष की उम्र गिनता हूं। वे सत्तर वर्ष तो बीत गए-नींद में,
बेहोशी में, मूर्छा में। उनकी गिनती कैसे करूं? नहीं जानता था जीवन को, तो
फिर उनकी भी गिनती कर लेता था। अब, जब से जीवन को जाना है, तब से उनकी गिनती
करनी बहुत मुश्किल हो गयी है।'
यही मैं आपसे भी कहना चाहता हूं कि जिसे हम अब तक जीवन जानते रहे हैं वह जीवन
नहीं है-वह एक निद्रा, एक मूर्छा है; एक दुःख की लंबी कथा है; एक अर्थहीन
खालीपन एक मीनिंगलेस एंपटिनेस है। जहां कुछ भी नहीं है हमारे हाथों में। जहां
न हमने कुछ जाना है और न कुछ जिया है। फिर वह जीवन कहां है, जिसकी हम बात
करें। जीवन के उसी एक सूत्र पर सुबह मैंने बात की है, दूसरे सूत्र पर अभी बात
करेंगे।
दूसरे सूत्र को समझने के लिए एक बात समझ लेनी जरूरी है कि मनुष्य का जीवन
भीतर से बाहर की तरफ आता है-बाहर से भीतर की तरफ नही। बीज में जब अंकुर आता
है, तो वह भीतर से आता है। अंकुर बड़ा होता है तो उसमें पत्ते और फूल लगते हैं
फल लगते हैं। उस छोटे-से बीज से एक बड़ा वृक्ष निकलता है, जिसके नीचे हजारों
लोग विश्राम करते हैं। एक छोटे-से बीज में इतना बड़ा वृक्ष छिपा होता है।
लेकिन, यह वृक्ष बाहर से नहीं आता है-यह अंधा भी कह सकता है। यह वृक्ष भीतर
से आता है, उस छोटे-से बीज से आता है।
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