टाल्स्टाय धीरे से उसके पास गया। आवाज पहचानी हुई मालूम पड़ी।' यह तो नगर का
सबसे बड़ा धनपति है!' उसकी सारी बातें टाल्लाय खड़े होकर सुनता रहा।
जब वह आदमी प्रार्थना कर पीछे मुड़ा, तो टाल्लाय को पास खड़ा देखकर उसने पूछा,
''क्या तुमने मेरी सारी बातें सुन ली हैं?''
टाल्स्टाय ने कहा, ''मैं धन्य हो गया तुम्हारी बातें सुनकर। तुम कितने पवित्र
आदमी हो कि अपने सब पापों को तुमने इस तरह खोलकर रख दिया!''
तो उस धनपति ने कहा, ''ध्यान रहे, यह बात किसी से कहना मत! यह बात मेरे और
परमात्मा के बीच हुई है। मुझे तो पता भी नहीं था कि तुम यहां खडे हुए हो। अगर
किसी दूसरे तक यह बात पहुंची, तो तुम पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दूगा।''
टाल्स्टाय ने कहा, ''अरे, अभी तो तुम कह रहे थे कि..."
''...वह सब अलग बात है। वह तुमसे मैंने नहीं कहा। वह दुनिया में कहने के लिए
नहीं है। वह मेरे और परमात्मा के बीच की बात है...!''
चूंकि परमात्मा कहीं भी नहीं है, इसलिए उसके सामने हम नंगे खड़े हो सकते हैं।
लेकिन जो आदमी जगत के सामने सच्चा होने को राजी नहीं है, वह परमात्मा के
सामने भी कभी सच्चा नहीं हो सकता है। हम अपने ही सामने सच्चे होने को राजी
नहीं हैं!''
...लेकिन यह डर क्यों है इतना? यह चारों तरफ के लोगों का इतना भय क्यों है?
चारों तरफ से लोगों की आंखें एक-एक आदमी को भयभीत क्यों किए हैं? हम सब मिलकर
एक-एक आदमी को भयभीत क्यों किए हुए हैं? आदमी इतना भयभीत क्या है? आदमी किस
बात की चिंता में है?
...आदमी बाहर से फूल सजा लेने की चिंता में है। बस लोगों की आंखों में
दिखायी पड़ने लगे कि मैं अच्छा आदमी हूँ, बात समाप्त हो गया। लेकिन लोगों की
आंखों में अच्छा दिखायी पड़ने से मेरे जीवन का सत्य और मेरे जीवन का संगीत
प्रगट नहीं होगा। और न लोगों की आंखों में अच्छा दिखायी पड़ने से मैं जीवन की
मूल-धारा से संबंधित हो सकूंगा। और न लोगों की आंखों में अच्छा दिखायी पड़ने
से मेरे जीवन की जड़ों तक मेरी पहुंच हो पाएगी। बल्कि, जितना मैं लोगों की
फिक्र करूंगा उतना ही मैं शाखाओं और गत्तों की फिक्र में पड़ जाऊंगा; क्योंकि
लोगों तक सिर्फ पत्ते पहुंचते हैं जड़ें नहीं
जड़ें तो मेरे भीतर हैं। वे जो रूट्स हैं वे मेरे भीतर है। उनसे लोगों का कोई
भी संबध नहीं है। वहां मैं अकेला हूं। टोटली अलोन। वहां कोई कभी नही पहुंचता।
वहां सिर्फ मैं हूं। वहां मेरे अतिरिक्त कोई भी नही है। वहां किसी दूसरे की
फिक्र नहीं करनी है।
अगर जीवन को मैं जानना चाहता हूं, और चाहता हूं कि जीवन मेरा बदल जाए
रूपांतरित हो जाए और, अगर मैं चाहता हूं कि जग़ीन का परिपूर्ण सत्य प्रगट हो
जाए चाहता हूं कि जीवन के मंदिर में प्रवेश हो जल्द मैं पहुंच सत्र, उम लोक
तक जहां सत्य का आवास है-तो फिर मुझे लोगों की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी। वह जो
क्राउड है, वह जो भीड़ मुझे घेरे हुए है, उसकी फिक्र मुझे छोड़ देनी पड़ती।
क्योंकि जो आदमी भीड़ की बहुत चिंता करता है, वह आदमी कभी जीवन को दिशा में
गतिमान नहीं हो पाता। क्योंकि भीड़ की चिंता बाहर की चिंता हैं।
इसका यह मतलब नहीं है कि भीड़ से मैं अपने सारे संबंध तोड़ लूं, जीवन व्यवस्था
से अपने सारे संबंध तोड़ लूं। इसका यह मतलब नही है। इसका कुल मतलब यह है कि
मेरी आंखें भीड़ पर न रह जाएं मेरी आंखें अपने पर हों। इसका कुल मतलब यह है कि
दूसरे की आंख में झांककर मैं यह न देखूं कि मेरी तस्वीर क्या है। बल्कि, मैं
अपने ही भीतर झांककर देखूं कि मेरी तस्वीर क्या है! अगर मेरी सच्ची तस्वीर का
मुझे पता लगाना है, तो मुझे मेरी ही आंखों के भीतर झाकना पड़ेगा।
तो दूसरों की आंखों में मेरा जो अपीयरेंस है-मेरी असली तस्वीर नहीं है वहां।
और उसी तस्वीर को देखकर मैं खुश हो लूंगा, उसी तस्वीर को देखकर प्रसन्न हो
लूंगा। वह तस्वीर गिर जाएगी, तो दुःखी हो जाऊंगा। अगर चार आदमी बुरा कहने
लगेंगे, तो दुःखी हो जाऊंगा। चार आदमी अच्छा कहने लगेंगे, तो सुखी हो जाऊंगा।
बस इतना ही मेरा होना है?
तो मैं हवा के झोंकों पर जी रहा हूं। हवा पूरब की ओर उड़ने लगेगी, तो मुझे
पूरब उड़ना पड़ेगा; हवा पश्चिम की ओर उड़ेगी, तो पश्चिम की ओर उड़ना पड़ेगा। लेकिन
मैं खुद कुछ भी नहीं हूं। मेरी कोई आथेंटिक एंग्जिस्टेंस नहीं है। मेरी कोई
अपनी आत्मा नहीं है। मैं हवा का एक झोंका हूं। मैं एक सूखा पत्ता हूं कि
हवाएं जहां ले जाएं बस, मैं वहीं चला जाऊं; कि पानी की लहरें मुझे जिस ओर
बहाने लगें, मैं उस ओर बहने लग। दुनिया की आंखें मुझ से जो कहें, वही मेरे
लिए सत्य हो जाए।
तो फिर मेरा होना क्या है? फिर मेरी आत्मा क्या है? फिर मेरा अस्तित्व क्या
है? फिर मेरा जीवन क्या है? फिर मैं एक झूठ हूं। एक बड़े नाटक का हिस्सा हूं।
और बड़े मजे की बात यह है कि जिस भीड़ से मैं डर रहा हूं वह भी मेरे जैसे
दूसरों की भीड़ है। बड़ी अजीब बात है कि वे सब भी मुझ से डर रहे हैं जिनसे मैं
डर रहा हूं।
हम सब एक-दूसरे से डर रहे हैं। और इस डर में हमने एक तस्वीर बना ली है और
भीतर जाने से डरते हैं कि कहीं यह तस्वीर मिट न जाए। एक सप्रेशन, एक दमन चल
रहा है। आदमी जो भीतर है, उसे दबा रहा है; और जो नहीं है, उसे थोप रहा है,
उसका आरोपण कर रहा है। एक द्वंद्व एक कानफ्लिक्ट खड़ी हो गयी है। एक-एक आदमी
अनेक-अनेक आदमियों में बंट गया है, मल्टि साइकिक हो गया है। एक-एक आदमी एक-एक
आदमी नहीं है। एक ही चौबीस घंटे में हजार बार बदल जाता है! नया आदमी सामने
आता है, तो नयी तस्वीर बन जाती है उसकी आंख में और वह बदल जाता है!
...Prev | Next...