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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


उल्टा सच नहीं है। अगर प्रेम आ जाए तो मैं किसी को गले से लगा सकता हूं, लेकिन गले से लगा लेने पर यह मत सोचना कि प्रेम आ जाएगा। वैसे गले लगा लेने से कवायद तो हो जाती है-प्रेम-वेम नही आता लेकिन लोग सोचते हैं गले लगाने से प्रेम आ जाता है! तो गले लगाने की तरकीब सीख लो, बात खत्म हो जाती है। तो एक आदमी गले से लगाने की तरकीब सीख लेता है और सोचता है कि प्रेम आ गया। 

गले लगाने से प्रेम के आने का क्या संबंध हो सकता है...? कोई भी सर्बध नही हो सकता।
श्रद्धा भीतर हो, आदर भीतर हो, तो आदमी झुक जाता है, लेकिन झुकने से श्रद्धा का जन्म नहीं हो जाता-कि आप झुक गए तो श्रद्धा आ गयी। आपका शरीर तो झुक जाएगा पर आप पीछे अकड़े हुए खड़े रहेंगे। देख लेना खयाल से-जब मंदिर में मूर्ति के सामने झुकें-तब देख लेना कि आप पीछे खड़े हैं और सिर्फ शरीर झुक रहा है। आप खड़े ही हुए हैं। आप खड़े होकर चारों तरफ देख रहे हैं मंदिर में कि लोग मुझे देख रहे हैं या नहीं! शरीर के झुकने से क्या अर्थ  लेकिन, हम जो हैं उसे छिपाने की हमने अच्छी तरकीबें खोज ली हैं। एक आदमी पाप करता है और कौन आदमी पाप नहीं करता-और फिर गंगा जाकर स्नान कर आता है! और निश्चित हो जाता है कि गंगा स्नान से पाप मिट गए! रामकृष्ण के पास जाकर एक आदमी ने कहा, ''मैं गंगा स्नान को जा रहा हूं आशीर्वाद दे दें!''
रामकृष्ण ने पूछा, ''किसलिए कष्ट कर रहा है? किसलिए गंगा को तकलीफ देने जा रहा है? मामला क्या है? गंगा भी घबड़ा गयी होगी। आखिर कितना जमाना हो गया उसे, पापियों के पाप धोते-धोते।
वह आदमी कहने लगा हां, उसी के लिए जा रहा हूं कि पापों से छुटकारा हो जाए। आशीर्वाद दे दें। रामकृष्ण ने कहा, ''तुझे पता है, गंगा के किनारे जो बड़े-बड़े झाड़ हैं वे जानते हो किसलिए हैं?''
उस आदमी ने कहा, ''किसलिए हैं मुझे पता नहीं।''
रामकृष्ण ने कहा, ''पागल, तू गंगा में स्थान करेगा और पाप बाहर निकल कर झाड़ों पर बैठ जाएंगे। फिर तू स्नान करके निकलेगा तो वे झाड़ों पर बैठे तेरा रास्ता देखते होंगे कि आ गए बेटे, अब हम तुम पर फिर सवार होते हैं। वे झाड़ इसीलिए हैं गंगा के किनारे।
''बेकार मेहनत मत कर। तुझे भी तकलीफ होगी-गंगा को भी, पापों को भी, वृक्षों को भी। इस सस्ती तरकीब से कुछ हल नहीं होगा।''
...लेकिन हम जब सस्ती तरकीबें ही खोज रहे है कि गंगा स्नान कर लेंगे। और गंगा-स्नान जैसे ही मामले है हमारे सारे। बाहर से व्यक्तित्व खड़ा करने की हम कोशिश करते हैं-उसे झुठलाने के लिए जो हम भीतर हैं।
टाल्स्टाय एक दिन सुबह-सुबह चर्च गया। रास्ते पर कोहरा पड़ रहा था। पांच ही बजे होंगे। जल्दी गया था कि अकेले में कुछ प्रार्थना कर लूंगा। चर्च में जाकर देखा कि उससे पहले भी कोई आया हुआ है। अंधेरे में, चर्च के द्वार पर हाथ जोड़े हुए एक आदमी खड़ा था। और वह आदमी कह रहा था कि हे परमात्मा मुझसे ज्यादा पापी कोई भी नहीं है। मैंने बहुत पाप किए हैं; मैंने बहुत बुराइयां की हैं; मैंने बड़े अपराध किए हैं; मैं हत्यारा हूं। मुझे क्षमा करना।'
टाल्लाय ने देखा कि कौन आदमी है, जो अपने मुंह से कहता है कि मैंने बहुत पाप किए हैं और मैं हत्यारा हूं। कोई आदमी ऐसा नहीं कहता कि मैं हत्यारा हूं, बल्कि किसी हत्यारे से यह कहो कि तुम हत्यारे हो, तो वह तलवार निकाल लेता है कि कौन कहता है, मैं हत्यारा हूं! हत्या करने को तैयार हो जाते हैं लेकिन यह मानने को राजी नहीं होता कि मैं हत्यारा हूं।...यह कौन आदमी आ गया है?

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