नहीं, सवाल यह नहीं है कि कौन क्या सोचता है। सवाल यह है कि 'मैं क्या हूं?
और मैं क्या जानता हू?' अगर जीवन में क्रांति लानी है तो सवाल यह है किं 'मैं
क्या हूं?' मैं क्या पहचानता हूं अपने को?'
और स्मरण रहे, जो आदमी अपने भीतर पहचानना शुरू करता है, उसके भीतर बदलाहट उसी
क्षण शुरू हो जाती है। क्योंकि भीतर जो गलत है, उसे पहचानकर बर्दाश्त करना
मुश्किल है, असंभव है। अगर पैर में कांटा गड़ा है, तो वह तभी तक गड़ा रह सकता
है, जब तक उसका मुझे पता नही है। जैसे ही मुझे पता चलता है, पैर से कांटे को
निकालना मजबूरी जाती है।
एक बच्चा स्कूल में मैदान में खेल रहा है खेल रहा है। पैर में चोट लग गयी है,
खून बह रहा है। उसे पता भी नहीं चला, क्योंकि वह हाकी खेलने में संलग्न है,
आक्यूपाइड है। उसकी सारी अटेंशन, उसका सारा ध्यान, हाकी खेलने में लगा है वह
जो गोल करना है, उस पर अटका हुआ है। वह जो चारो तरफ खिलाड़ी हैं, उनसे अटका
हुआ है; वह जो प्रतियोगिता चल रही है, उसमें अटका हुआ है। उसे पता भी नहीं है
कि उसके पैर से खून बह रहा है।
वह दौड़ रहा है, दौड़ रहा है। फिर खेल बंद हो गया है और अचानक उसे खयाल आया है
कि पैर से खून बह रहा है। यह खून बहुत देर से बह रहा है, लेकिन अब तक उसे पता
नहीं चला। अब वह मलहम-पट्टी की चिंता में पड़ गया है। लेकिन इतनी देर तक उसे
पता नहीं चला! क्योंकि जब तक वह खेल में व्यस्त था, तब तक पता चलने का सवाल
ही नहीं था।
हम बाहर देख रहे हैं। गोल करना है, वह देख रहे हैं। प्रतियोगिता चल रही है,
वह देख रहे हैं। लोगों की आंखों में देख रहे है। हमें पता ही नही चलता किं
भीतर कितने कांटे हैं और कितने घाव हैं। भीतर पता ही नही चलता कितना अंधकार
है! भीतर पता ही नहीं चलता कितनी बीमारियां हैं! उलझे रहेंगे और उलझे रहेंगे।
जिंदगी बीत जाएगी और पता नहीं चलेगा।
एक बार हटाएं आंख बाहर से और भीतर के घावों को देखें! और मैं आपसे कहता हूं,
उन्हें देखना उनके बदलने का पहला सूत्र है। एक बार दिखायी पड़ा कि फिर आप
उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकते। फिर आपको बदलना ही पड़ेगा।
और बदलना कठिन नहीं है। जो दुःख दे रहा है, उसे बदलना कभी भी कठिन नही होता,
सिर्फ भुलाए रखना आसान होता है। बदलना कठिन नहीं है, लेकिन भुलाए रखना बहुत
आसान है। और जब तक भूला रहेगा, तब तक जीवन में कोई क्रांति नहीं होगी।
जीवन क्रांति का दूसरा सूत्र है, 'मैं दूसरों की आंखों में न देखूं।'
अपनी आंख में, अपने भीतर, अपनी तरफ, मैं जहां हूं-वहां देखूं यही असली सवाल
है, यही असली समस्या है व्यक्ति के सामने कि 'मैं क्या हूं?' जैसा भी हूं
उसको ही देखना और साक्षात्कार करना है।
लेकिन हम? कोई हमसे पूछेगा-आप कौन हैं? तो हम कहेंगे-'फला आदमी का बेटा हूं,
फलां मोहल्ले में रहता हूं, फलां गांव में रहता हूं-यही परिचय है हमारा। यह
लेबल जो हम ऊपर से चिपकाए हुए हैं यही हमारी पहचान है यही हमारी जिंदगी का
सबूत है-हमारी जिंदगी का प्रमाण हैं। यही हमारी जानकारी है अपने बाबत। हमें
पता ही नहीं है कि भीतर हम कौन हैं! अभी तक हम बाहर से कागज चिपकाए हुए हैं।
और वे भी दूसरों के चिपकाए हुए हैं। किसी ने एक नाम चिपका दिया है। उसी नाम
को जिंदगी भर लिए हम घूम रहे
हैं। उस नाम को कोई गाली दे दे, तो लड़ने को तैयार हो जाते हैं।
स्वामी राम अमेरिका गए थे। वहां के लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए। एक बार राम को
कुछ लोगों ने गालियां दी तो राम ने मित्रों को आकर कहा कि आज बड़ा मजा हो गया।
बाजार में कुछ लोग मिल गए और राम को खूब गालियां देने लगे। हम भी खड़े सुनते
रहे।
लोगों ने कहा, ''क्या आप पागल हो गए हैं। लोग राम को गालियां देते थे? कौन
राम?''
स्वामी राम ने कहा, ''यह राम जिसको लोग राम कहते हैं। कुछ लोगों ने इस राम को
घेर-लिया और बेटे को बहुत गालियां देने लगे। हम खड़े होकर देखते रहे कि आज राम
को अच्छी गालियां पड़ रही हैं।''
लेकिन हम राम होकर झगड़े में पड़े हैं। पर हम राम नहीं हैं। हम तो जो हैं उसका
नाम तो राम नहीं है। यह नाम तो किसी का दिया हुआ है। यह तो समाज का दिया हुआ
है। हम तो कुछ और हैं। जब नाम नहीं था, तब भी हम थे। जब नाम नही रह जाएगा तब
भी हम होंगे।
अभी भी रात सो जाते हैं तो नाम मिट जाता है-समाज भी मिट जाता है, फिर भी हम
सोते हैं।
आप मिट जाते हैं रात, न पत्नी रह जाती है आपकी, न बेटा रह जाता है आपका-न
धन-दौलत रह जाती है-न पद प्रतिष्ठा रह जाती है, फिर भी आप रह जाते हैं जब कि
सब मिट जाता है। वह जो सोसायटी देती है, वह बाहर ही छूट जाता है, वह भीतर
जाता ही नहीं। वह मरने के वक्त भी भीतर नहीं आता-और ध्यान के वक्त भीतर नहीं
जाता। वह जो समाप्त होता है, वह बाहर है, और बाहर ही रह जाता है। लेकिन उसको
हम अपना व्यक्तित्व समझे हुए हैं। इस भूल से मुक्त हो जाना चाहिए। अन्यथा कोई
भी व्यक्ति जीवन की यात्रा पर एक कदम आगे नहीं बढ़ सकता है।
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