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संभोग से समाधि की ओर

ओशो

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

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संभोग से समाधि की ओर...


...वे कहने लगीं, ''प्रायश्चित करना होगा उपवास करना होगा।''
मैंने उसे कहा, ''करो उपवास जितना करना हो, लेकिन चादर के स्पर्श से जिसको स्त्री और पुरुष का भाव पैदा हो जाता हो, उसका चित्त ब्रह्मचर्य को कभी उपलब्ध नहीं हो सकता...।''
लेकिन नहीं, हम इसी तरह के ब्रह्मचर्य को पकड़े रहेंगे; इसी तरह की झूठी बातों को; इसी तरह की नैतिकता को। इस तरह का धर्म सब झूठा है। दमन जहां है, वहां सब झूठा है। भीतर कुछ और हो रहा है, बाहर कुछ और हो रहा है।
...अब इस साध्वी को दिखायी ही नहीं पड़ सकता कि यह अति कामुकता है। यह रुग्ण कामुकता हो गयी; यह बीमार स्थिति हो गयी कि चादर भी स्त्री और पुरुष होती है! जिस ब्रह्मचर्य में पुरुष और स्त्री न मिट गए हों, वह ब्रह्मचर्य नहीं है।

कुछ युवा एक रात्रि एक वेश्या को साथ लेकर सागर तट पर आए। उस वेश्या के वस्त्र छीनकर उसे नंगा कर दिया और शराब पीकर वे नाचने-गाने लगे। उन्हें शराब के नशे में डूबा देखकर वह वेश्या भाग निकली। रात जब उन युवकों को होश आया तो वे उसे खोजने निकले। वेश्या तो उन्हें नहीं मिली, लेकिन एक
झाड़ी के नीचे बुद्ध बैठे हुए उन्हें मिले। वे उनसे पूछने लगे ''महाशय यहां से एक नंगी स्त्री को एक वेश्या को भागते तो नहीं देखा? रास्ता तो यही है। यहीं से गुजरी होगी। आप यहां कब से बैठे हुए हैं?''
बुद्ध ने कहा, ''यहां से कोई गुजरा जरूर है, लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष, यह मुझे पता नहीं है। जब मेरे भीतर का पुरुष जागा हुआ था तब मुझे स्त्री दिखायी पड़ती थी। न भी देखूं तो भी दिखायी पड़ती थी। बचना भी चाहूं तो भी दिखायी पड़ती थी। आंखें किसी भी जगह और कहीं भी कर लूं तो भी ये आंखें स्त्री को ही देखती थीं। लेकिन जब से मेरे भीतर पुरुष का विदा हो गया है, तबसे बहुत खयाल करूं तो ही पता चलता है कि कौन स्त्री, कौन पुरुष है। वह कौन था जो यहां से गुजरा है, यह कहना मुश्किल है। तुम पहले क्यों नहीं आए? पहले कह गए होते कि यहां से कोई निकले तो ध्यान रखना तो मैं ध्यान रख सकता था।

और यह बताना तो और भी मुश्किल है, वह नंगा था या वस्त्र पहने हुए था। क्योंकि जब तक अपने नंगेपन को छिपाने की इच्छा थी तब तक दूसरे के नंगेपन को देखने की भी बड़ी इच्छा थी। लेकिन अब कुछ देखने की इच्छा नहीं रह गयी है। इसलिए खयाल में नहीं आता कि कौन क्या पहने हुए है...।''
दूसरे में हमें वही दिखायी देता है, जो हममें होता है। दूसरे में हमें वही दिखायी देता है, जो हमें है। और दूसरा आदमी एक दर्पण की तरह काम करता है, उसमें हम ही दिखायी पड़ते हैं।
बुद्ध कहने लगे, ''अब तो मुझे कुछ याद नहीं आता क्योंकि किसी को नंगा देखने की कोई कामना नहीं है। मुझे पता नहीं कि वह कपड़े पहने थी या नहीं पहने थी।''
...वे युवक कहने लगे, ''हम उसे लाए थे अपने आनंद के लिए। लेकिन वह अचानक भाग गयी है। हम उसे खोज रहे हैं।''
बुद्ध ने कहा, ''तुम जाओ और उसे खोजो। भगवान करे, किसी दिन तुम्हें यह खयाल आ जाए कि इतनी खूबसूरत और शांत रात में अगर तुम किसी और को न खोजकर अपने को खोजते, तो तुम्हें वास्तविक आनंद का पता चलता। लेकिन, तुम जाओ और खोजो दूसरों को। मनँ भी बहुत दिन तक दृसरों को खोजा, लेकिन दूसरों को खोजकर मैंने कुछ भी नहीं पाया। और जब से अपने को खोजा, तब से वह सब पा लिया है, जिसे पाकर कोई भी कामना पाने की शेष नहीं रहती।''यह बुद्ध ब्रह्मचर्य में रहे होंगे। लेकिन, चादर पुरुष हो जाए तो ब्रह्मचर्य नहीं है।
और यह दुर्भाग्य है कि दमन के कारण सारे देश का व्यक्तित्व कुरूप, विकृत परवर्टेड हो गया है। एक-एक आदमी भीतर उल्टा है, बाहर उल्टा है। भीतर आत्मा शीर्षासन कर रही है। भीतर हम सब सिर के बल खड़े हुए हैं, जो नहीं है भीतर वह हम बाहर दिखला रहें है और दूसरे धोखे में आजाए इससे कोई बहुत हर्जा नही है; स्वयं ही धोखा खा जाते हैं। लंबे अर्से में हम यह भूल ही जाते हैं कि हम यह क्या कर रहे हैं।
दमन, मनुष्य की आत्मा की असलियत को छिपा देता है और झूठा आवरण पैदा कर लेता है। और, फिर इस दमन में हम, जिंदगी भर जिसे दमन किया है, उसे ही लड़कर गुजारते हैं।
ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला आदमी चौबीस घंटे सेक्स सेंटर में ही जिंदगी व्यतीत करता है। उपवास करने वाला चौबीस घंटे भोजन करता हैं। आपने कभी उपवास किया हो तो आपको पता होगा।
उपवास करें और चौबीस घंटे भोजन करना पड़ेगा। हां, भोजन मानसिक होगा शारीरिक नहीं। लेकिन, शारीरिक भोजन का कुछ फायदा भी हो सकता है, मानसिक भोजन का सिवाय नुकसान के और कोई भी फायदा नहीं है। जिसने दिन भर खाना नहीं खाया है, वह दिनभर खाने की इच्छा से भरा हो, यह स्वाभाविक है। नहीं उपवास का यह अर्थ नहीं है कि आदमी खाना न खाए। उपवास का अर्थ अनाहार नहीं है। अनाहार करने वाला दिनभर आहार करता है। उपवास का अर्थ दूसरा है। दमन नहीं है उपवास का अर्थ; लेकिन दमन ही उसका अर्थ बन गया है। उपवास का अर्थ भोजन 'न-करना' नहीं है।
उपवास का अर्थ है : आत्मा के निकट आवास।
और, आत्मा के निकट कोई इतना पहुच जाए कि उसे भोजन का खयाल ही न आए तो वह बात ही दूसरी है; कोई इतने भीतर उतर जाए कि बाहर का पता भी न चले कि शरीर भूखा है, वह बात दूसरी है; कोई इतने गहरे में चला जाए कि शरीर को प्यास लगी है कि भूख लगी है, भीतर इसकी खबर ही न पहुंचती हो, तो बात यह दूसरी है।-भोजन नहीं छुऊंगा-ऐसा संकल्प करके बैठ जाए तो दिनभर उसको भोजन करना पड़ता है; वह उपवास में नहीं होता।
दमन, धोखा पैदा करता है।
दमन, वह जो असलियत है-उपलब्धि की, अनुभूति की; वह जो सत्य है, उसकी तरफ बिना ले जाए बाहर परिधि पर ही सब नष्ट करके जबर्दस्ती कुछ पैदा करने की कोशिश करता है। और यह कोशिश बहुत महंगी पड़ जाती है।
हिदुस्तान में ब्रह्मचर्य की बात चल रही है तीन-चार हजार वर्ष से। और इस बात को कहने में मुझे जरा भी अतिशयोक्ति नहीं मालूम पड़ती कि आज इस पृथ्वी पर हमसे ज्यादा कामुक कोई समाज नहीं है। चौबीस घंटे हम काम से लड़ रहे हैं।

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