लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> संभोग से समाधि की ओर

संभोग से समाधि की ओर

ओशो

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :440
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 97
आईएसबीएन :9788171822126

Like this Hindi book 0

संभोग से समाधि की ओर...


मुनि जी को क्रोध आ गया। ''क्या अखबार नहीं पढ़ते हो, रेडियो नहीं सुनते हो, मेरा नाम पूछते हो? मेरा नाम जग-जाहिर है, मेरा नाम मुनि शातिनाथ है।'' उनके बताने के ढंग से मित्र समझ गया कि कोई बदलाहट नहीं हुई है। आदमी तो वही का वही है, सिर्फ नंगा खड़ा हो गया है।
दो मिनट दूसरी बात चलती रही। मित्र ने फिर पूछा-''महाराज, मैं भूल
गया-आपका नाम क्या है?''
मुनि की आंखों से तो आग बरसने लगी। उन्होंने कहा-''मूढ़! नासमझ! इतनी जल्दी भूल गया। अभी मैंने तुझसे कहा था मेरा नाम मुनि शांतिनाथ है। मेरा नाम है-मुनि शांतिनाथ।''
दो मिनट तक फिर दूसरी बातें चलती रहीं। फिर उसने-पूछा कि ''महाराज, मैं भूल गया, आपका नाम क्या है?'' मुनि ने डंडा उठा लिया और कहा ''चुप नासमझ! तुझे मेरा नाम समझ में नहीं आता? मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ।''
उस मित्र ने कहा, ''अब सब समझ गया हूं। सिर्फ वही समझ में नही आया जो मैं पूछता हूं। अच्छा नमस्कार! आप वही के वही हैं कोई फर्क नहीं पड़ा!
दमन से कभी कोई फर्क नहीं आता है, लेकिन दमन से चीजें स्वप्न बन जाती हैं। और स्वप्न बन जाना बहुत खतरनाक है, क्योंकि बदली हुई शक्ल में उनको पहचानना भी मुश्किल हो जाता है।
आदमी के भीतर सेक्स है, काम-वासना है, उसे पहचानना सरल है; और अगर आदमी ब्रह्मचर्य साधने की जबर्दस्ती कोशिश में लग जाए तो उस ब्रह्मचर्य के पीछे भी सेक्यूअलिटी होगी, कामुकता होगी। लेकिन उसको पहचानना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि वह अब वस्त्र बदल कर आ जाएगी।
ब्रह्मचर्य तो वह है, जो चित्त के परिवर्तन से उपलब्ध होता है, जो जीवन के अनुभव से उपलब्ध होता है।
एक शांति वह है, जो जीवन की अनुभूति से छाया की तरह आती है और एक शांति वह है, जो क्रोध दबाकर ऊपर से थोप ली जाती है।
जो भीतर वासना को दबाकर, उसकी गर्दन को पकड़ कर खड़ा हो जाता है, ऐसा ब्रह्मचर्य कामुकता से भी बदतर है; क्योंकि कामुकता तो पहचान में भी आती है, पर ऐसा ब्रह्मचर्य पहचान में भी नहीं आता।
दुश्मन पहचान में आता हो तो उसके साथ बहुत कुछ किया भी जा सकता हैं, और यदि दुश्मन ही पहचान में न आ पाए तब बहुत कठिनाई हो जाती है।
मैं एक साध्वी के पास समुद्र के किनारे बैठा हुआ था। वह साध्वी मुझसे परमात्मा की और आत्मा की बातें कर रही थी।
हम सभी बातें आत्मा-परमात्मा की करते हैं जिससे हमारा कोई भी संबंध नहीं है। और जिन बातों से हमारा संबंध है, उनकी हम कोई बात नहीं करते। क्योंकि वे छोटी-छोटी और क्षुद्र बातें हैं। हम आकाश की बातें करते हैं पृथ्वी की बातें नहीं करते। जिस पृथ्वी पर चलना पड़ता है-और जिस पृथ्वी पर जीना पड़ता है-और जिस पृथ्वी पर जन्म होता है-और जिस पृथ्वी पर लाश गिरती है अंत में, उस पृथ्वी की हम बात नहीं करते! हम बात आकाश की करते हैं जहां न हम जी रहे हैं न रह रहे हैं!
हम दोनों आत्मा-परमात्मा की बात कर रहे थे।
आत्मा-परमात्मा की बात आकाश की बात है।
...कि हवा का एक झोंका आया और मेरी चादर उड़ी और साध्वी को छू गयी, तो वह एकदम से घबड़ा गयी। मैंने पूछा, ''क्या हुआ?''
उसने कहा, ''पुरुष की चादर! पुरुष की चादर छूने का निषेध है।''
मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैंने कहा, ''क्या चादर भी पुरुष और स्त्री हो सकती है? तब तो यह चमत्कार है! कि चादर भी स्त्री और पुरुष हो सकती है...।''
लेकिन ब्रह्मचर्य के साधकों ने चादर को भी खी-पुरुष में परिवर्तित कर दिया है। यह सेक्यूअलिटी की अति हो गयी, कामुकता की अति हो गयी।
...मैंने कहा, ''अभी तो तुम आत्मा की बातें करती थीं, और अभी तुम शरीर हो गयीं! अभी तुम चादर छू जाने से चादर हो गयीं? अभी थोड़े समय पहले तो तुम आत्मा थी अब तुम शरीर हो गयी चादर हो गयीं''!
अब यह चादर भी सेक्स-सिंबल बन गयी, अब यह भी काम का प्रतीक बन गयी। हवाओं को क्या पता कि चादर भी पुरुष होती है, अन्यथा हवाएं भी चादरों के नियमों का ध्यान रखतीं। यह तो गलती हो गयी चादर के प्रति हवाओं से। 

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book