कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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नारी का वह हृदय! हृदय
में-सुधा-सिंधु लहरें लेता,
बाड़व-ज्वलन उसी में जलकर
कंचन सा जल रंग देता।
मधु-पिंगल उस तरल-अग्नि
में शीतलता संसृति रचती,
क्षमा और प्रतिशोध! आह रे
दोनों की माया नचती।
''उसने स्नेह किया था
मुझसे हां असभ्य वह रहा नहीं,
सहज लब्ध थी वह अनन्यता
पड़ी रह सके जहां कहीं।
बाधाओं का अतिक्रमण कर जो
अबाध हो दौड़ चले,
वही स्नेह अपराध हो उठा
जो सब सीमा तोड़ चले।
''हां अपराध, किंतु वह
कितना एक अकेले भीम बना,
जीवन के कोने से उठकर
इतना आज असीम बना!
और प्रचुर उपकार सभी वह
सहृदयता की सब माया,
शून्य-शून्य था! केवल
उसमें खेल रही थी छल छाया!
''कितना दुखी एक परदेशी
बन, उस दिन जो आया था,
जिसके नीचे धारा नहीं थी
शून्य चतुर्दिक छाया था।
वह शासन का सूत्रधार था
नियमन का आधार बना,
अपने निर्मित नव विधान से
स्वयं दंड साकार बना।
''सागर की लहरों से उठकर
शैल श्रृंग पर सहज चढ़ा,
अप्रतिहत गति, संस्थानों
से रहता था जो सदा बढ़ा।
आज पड़ा है वह मुमूर्ष सा
वह अतीत सब सपना था,
उसके ही सब हुए पराये
सबका ही जो अपना था।
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