कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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निर्वेद
वह सारस्वत नगर पड़ा था क्षुब्ध, मलिन, कुछ मान बना,जिसके ऊपर विगत कर्म का विष-विषाद-आवरण तना।
उल्का धारी प्रहरी से ग्रह-तारा नभ में टहल रहे,
वसुधा पर यह होता क्या है अणु अणु क्यों हैं मचल रहे?
जीवन में जागरण सत्य है या सुषुप्ति ही सीमा है,
आती है रह पुकार-सी 'यह भव-रजनी भीमा है।'
निशिचारी भीषण विचार के पंख भर रहे सर्राटे,
सरस्वती थी चली जा रही खींच रही-सी सन्नाटे।
अभी घायलों की सिसकी में जाग रही थी मर्म-व्यथा,
पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस कुछ कह उठती थी करुण-कथा।
कुछ प्रकाश धूमिल-सा उसके दीपों से था निकल रहा,
पवन चल रहा था रुक-रुक कर खिन्न, भरा अवसाद रहा।
भयमय मौन निरीक्षक-सा था सजग सतत चुपचाप खड़ा,
अंधकार का नील आवरण दृश्य-जगत से रहा बड़ा।
मंडप के सोपान पड़े थे सूने, कोई अन्य नहीं,
स्वयं इड़ा उस पर बैठी थी अग्नि-शिखा-सी धधक रही।
शून्य राज-चिह्नों से मंदिर बस समाधि-सा खड़ा,
क्योंकि वहीं घायल शरीर वह मनु का तो था रहा पड़ा।
इड़ा ग्लानि से भरी हुई बस सोच रही बीती बातें,
घृणा और ममता में ऐसी बीत चुकीं कितनी रातें।
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