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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700
आईएसबीएन :9781613014295

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इड़ा उठी, दिख पड़ा राजपथ धुंधली-सी छाया चलती,
वाणी में थी करुण-वेदना वह पुकार जैसे जलती।

शिथिल शरीर, वसन विश्रृंखल कबरी अधिक अधीर खुली,
छिन्नपत्र मकरंद लुटी-सी ज्यों मुरझाई हुई कली।

नव कोमल अवलंब साथ में वय किशोर उंगली पकड़े,
चला जा रहा मौन धैर्य-सा अपनी माता को जकड़े।

थके हुए थे दुखी बटोही वे दोनों ही मां-बेटे,
खोज रहे थे भूले मनु को जो घायल हो कर लेटे।

इड़ा आज कुछ द्रवित हो रही दुखियों को देखा उसने,
पहुंची पास और फिर पूछा ''तुमको बिसराया किसने?

इस रजनी में कहां भटकती जाओगी तुम बोलो तो,
बैठो आज अधिक चंचल हूं व्यथा-गांठ निज खोलो तो।

जीवन की लंबी यात्रा में खोये भी हैं मिल जाते,
जीवन है तो कभी मिलन है कट जाती दुख की रातें।''

श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था मिलता है विश्राम यहीं,
चली इड़ा के साथ जहां पर वह्नि शिखा प्रज्वलित रही।

सहसा धधकी वेदी ज्वाला मंडप आलोकित करती,
कामायनी देख पायी कुछ पहुंची उस तक डग भरती।

और वही मनु! घायल सचमुच तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?
आह प्राणप्रिय! यह क्या? तुम यों! घुला हृदय, बन नीर बहा।

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