कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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मौन! नाश! विध्वंस!
अंधेरा! शून्य बना जो प्रकट अभाव,
वहीं सत्य है, अरी अमरते!
तुझको! यहां कहां अब ठांव।
मृत्यु, अरी चिर-निद्रे!
तेरा अंक हिमानी-सा शीतल,
तू अनंत में लहर बनाती
काल-जलधि की-सी हलचल।
महानृत्य का विषय सम अरी
अखिल स्पंदनों की तू माप,
तेरी ही विभूति बनती है
सृष्टि सदा होकर अभिशाप।
अंधकार के अट्टहास-सी
मुखरित सतत चिरंतन सत्य,
छिपी सृष्टि के कण-कण में
तू यह सुंदर रहस्य है नित्य।
जीवन तेरा क्षुद्र अंश है
व्यक्त नीन धन-माला में,
सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर
क्षण भर रहा उजाला में।''
पवन पी रहा था शब्दों को
निर्जनता की उखड़ी सांस,
टकराती थी, दीन
प्रतिध्वनि बनी हिम-शिलाओं के पास।
धू-धू करता नाच रहा था
अनस्तित्व का तांडव नृत्य,
आकर्षण-विहीन विद्युत्कण
बने भारवाही थे भृत्य।
मृत्यु सदृश शीतल निराश
ही आलिंगन पाती थी दृष्टि,
परमव्योम से भौतिक कण-सी
घने कुहासों की थी वृष्टि।
वाष्प बना उड़ता जाता था
या वह भीषण जल-संघात,
सौरचक्र में आवर्त्तन था
प्रलय निशा का होता प्रात!
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