कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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वे तीनों ही क्षण, एक मौन-
विस्मृत से थे, हम कहां
कौन!
विच्छेद बाह्य, था
आलिंगन-
वह हृदयों का, अति
मधुर-मिलन,
मिलते आहत होकर जलकन,
लहरों का यह परिणत जीवन,
दो लौट चले पुर ओर मौन,
जब दूर हुए तब रहे दो न।
निस्तब्ध गगन था, दिशा
शांत,
वह था असीम का चित्र कांत।
कुछ शून्य बिंदु उर के
ऊपर
व्यथिता रजनी के
श्रमसीकर,
झलके कब से पर पड़े न झर,
गंभीर मलिन छाया भू पर,
सरिता तट तरु का क्षितिज
प्रांत,
केवल बिखेरता दीन ध्वांत।
शत-शत तारा मंडित अनंत,
कुसुमों का स्तबक खिला
वसंत,
हंसता ऊपर का विश्व मधुर,
हलके प्रकाश से पूरित उर,
बहती माया सरिता ऊपर,
उठती किरणों की लोल लहर,
निचले स्तर पर छाया दुरंत,
आती चुपके, जाती तुरन्त।
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