कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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बिखरे असंख्य ब्रह्मांड
गोल,
युग त्याग ग्रहण कर रहे
तोल,
विद्युत् कटाक्ष चल गया
जिधर,
कंपित संसृति बन रही उधर,
चेतन परमाणु अनंत बिखर,
बनते विलीन होते क्षण-भर;
यह विश्व झूलता रहा महा
दोल,
परिवर्तन का पट रहा खोल।
उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,
सब शाप पाप कर विनाश-
नर्तन में निरत, प्रकृति
गल कर,
उस कांति सिंधु में
घुल-मिलकर,
अपना स्वरूप धरती सुंदर,
कमनीय बना था भीषणतर,
हीरक-गिरि पर
विद्युत-विलास,
उल्लसित महा हिम धवल हास।
देखा मनु ने नर्त्तित
नटेश,
हत चेत पुकार उठे विशेष-
''यह क्या! श्रद्धे बस तू
ले चल,
उन चरणों तक, दे निज
संबल,
सब पाप पुण्य जिसमें
जल-जल,
पावन बन जाते हैं निर्मल,
मिटते असत्य-से ज्ञान-लेश,
समरस, अखंड, आनंद-वेश!
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