कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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सत्ता का स्पंदन चला डोल,
आवरण पटल की ग्रंथि खोल,
तम जलनिधि का बन मधुमंथन,
ज्योत्सना सरिता का
आलिंगन,
वह रजत गौर, उज्ज्वल
जीवन,
आलोक पुरुष! मंगल चेतन!
केवल प्रकाश का था कलोल,
मधु किरणों की थी लहर
लोल।
बनगया था तमस था अलकजाल,
सर्वांग ज्योतिमय था
विशाल,
अंतर्निनाद ध्वनि से
पूरित,
थी शून्य-भेदिनी-सत्ता
चित्,
नटराज स्वयं थे
नृत्य-निरत,
था अंतरिक्ष प्रहसित
मुखरित,
स्वर लय होकर दे रहे ताल,
थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।
लीला का स्पंदित आह्लाद,
वह प्रभा-पुंज चितिमय
प्रसाद,
आनंद पूर्ण तांडव सुंदर,
झरते थे उज्ज्वल श्रम
सीकर,
बनते तारा, हिमकर, दिनकर,
उड़ रहे धूलिकण-से भूधर,
संहार सृजन से युगल पाद-
गतिशील, अनाहत हुआ नाद।
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