कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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वह विश्वास भरी स्मिति
निश्छल श्रद्धा-मुख पर झलक उठी थी
सेवा कर-पल्लव में उसके
कुछ करने को ललक उठी थी।
दे अवलंब, विकल साथी को
कामायनी मधुर स्वर में बोली,
''हम बढ़ दूर निकल आये अब
करने का अवसर न ठिठोली।
दिशा-विकंपित, पल असीम है
यह अनंत सा कुछ ऊपर है,
अनुभव करते हो, बोलो क्या
पदतल में, सचमुच भूधर है?
निराधार हैं किंतु ठहरना
हम दोनों को आज यहीं है,
नियति खेल देखूं न, सुनो
अब इसका अन्य कोई उपाय नहीं है।
झांई लगती जो, वह तुमको
ऊपर उठने को है कहती,
इस प्रतिकूल पवन धक्के को
झोंक दूसरी ही आ सहती।
श्रांत पक्ष, कर नेत्र
बंद बस विहग-युगल से आज हम सहे,
शून्य पवन बन पंख हमारे
हमको दे आधार, जम रहें।
घबराओ मत! यह समतल है
देखो तो, हम कहां आ गये''
मनु ने देखा आंख खोल कर
जैसे कुछ-कुछ त्राण पा गये।
ऊष्मा का अभिनव अनुभव था
ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे,
विदा-रात्रि के संधि काल
में ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।
ऋतुओं के स्तर हुये
तिरोहित भू-मंडल-रेखा विलीन सी,
निराधार उस महादेश में
उदित सचेतनता नवीन-सी।
त्रिदिक विश्व, आलोक
बिंदु भी तीन दिखाई पड़े अलग वे,
त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे
मानो वे अनमिल थे किंतु सजग थे।
मनु ने पूछा, ' कौन नये
ग्रह ये हैं, श्रद्धे! मुझे बताओ?
मैं किस लोक बीच पहुंचा,
इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ।''
''इह त्रिकोण के मध्य
बिंदू तुम शक्ति विपुल क्षमतावाले ये,
एक एक को स्थिर हो देखो
इच्छा, ज्ञान, क्रिया वाले ये।
वह देखो रागारुण है जो
ऊषा के कंदुक सा सुंदर,
छायामय कमनीय कलेवर
भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर।
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