कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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शब्द, स्पर्श, रस, रूप,
गंध की पारदर्शिनी सुघड़ पुतलियां,
चारों ओर नृत्य करतीं
ज्यों रूपवती रंगीन पुतलियां!
इस कुसुमाकर के कानन के
अरुण पराग पटल छाया में,
इठलातीं सोतीं जगतीं ये
अपनी भव-भरी छाया में।
वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी
कोमल अंगड़ाई है लेती,
मादकता की लहर उठाकर अपना
अंबर तर कर देती।
आलिंगन-सी मधुर प्रेरणा
छू लेती, फिर सिहरन बनती,
नव-अंबुलषा की व्रीड़ा-सी
खुल जाती है, फिर जा मुंदती।
यह जीवन की मध्य-भूमि है
रस-धारा से सिंचित होती,
मधुर लालसा की लहरों से
यह प्रवाहिका स्पंदित होती।
जिसके तट पर विद्युत-कण
से मनोहारिणी आकृति वाले,
छायामय सुषमा में विह्वल
विचर रहे सुंदर मतवाले।
सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र
से मधुर गंध उठती रस-भीनी,
वाष्प अदृश्य फुहारें
इसमें छूट रहे, रस-बूंदे झीनी।
घूम रही है यहां
चर्तुदिक् चलचित्रों सी संसृति छाया,
जिस आलोक-विंदु को घेरे
वह बैठी मुसक्याती माया।
भाव-चक्र यह चला रही है
इच्छा की रथ-नाभि घूमती,
नवरस-भरी अराएं अविरल
चक्रवाल को चकित चूमती।
यहां मनोमय विश्व कर रहा
रागारुण चेतन उपासना,
माया-राज्य! यही परिपाटी
पाश बिछा कर जीव फांसनां।
ये अशरीरी रूप, सुमन से
केवल वर्ण गंध में फूले,
इन अप्सरियों की तानों के
मचल रहे हैं सुंदर झूले।
भाव-भूमिका इसी लोक की
जननी है सब पुण्य-पाप की,
ढलते सब, स्वभाव
प्रतिकृति बन गल ज्वाला से मधुर ताप की।
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