कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जिस मुरली के निस्वन से
यह शून्य रागमय होता,
वह कामायनी विहंसती अग जग
था मुखरित होता।
क्षण-भर में सब
परिवर्त्तित अणु अणु थे विश्व-कमल के,
पिंगल-पराग से मचले
आनंद-सुधा-रस छलके।
अति मधुर गंधवह बहता
परिमल बूंदों से सिंचित,
सुख-स्पर्श कमल-केसर का
कर आया रज से रंचित।
जैसे असंख्य मुकुलों का
मादन-विकास कर आया,
उनके अछूत अधरों का कितना
चुंबन भर लाया।
रुक-रुक कर कुछ इठलाता
जैसे कुछ हो वह झूला,
वन कनक-कुसुम-रज धूसर
मकरंद-जलद-सा फूला।
जैसे वनलक्ष्मी ने ही
बिखराया हो केसर-रज,
या हेमकूट हिम जल में
झलकाता परछाई निज।
संसृति के मधुर मिलन के
उच्छ्वास बना कर निज दल,
चल पड़े गगन-आंगन न कुछ
गाते अभिनव मंगल।
बल्लरियां नृत्य निरत
थीं, बिखरीं सुगंध की लहरें,
फिर वेणु रंध्र से उठकर
मूर्च्छना कहां अब ठहरे।
गूंजते मधुर नूपुर से
मदमाते होकर मधुकर,
वाणी की वीणा-ध्वनि-सी भर
उठी शून्य में झिल कर।
उन्मद माधव मलयानिल दौड़े
सब गिरते-पड़ते,
परिमल से चली नहा कर
काकली, सुमन थे झड़ते।
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