कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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अपने दुख-सुख से पुलकित
यह मूर्त्त-विश्व सचराचर,
चिति का विराट-वपु मंगल
यह सत्य सतत चित सुंदर।
सब की सेवा न परायी वह
अपनी सुख-संसृति है,
अपना ही अणु कण कण द्वयता
ही तो विस्मृति है।
मैं की मेरी चेतनता सबको
की स्पर्श किये सी,
सब भिन्न परिस्थितियों की
है मादक घूंट पिये सी।
जग ले ऊषा के दृग में सो
ले निशि की पलकों में,
हां स्वप्न देख ले सुंदर
उलझन वाली अलकों में-
चेतन का साक्षी मानव हो
निर्विकार हंसता सा
मानस के मधुर मिलन में
गहरे गहरे धंसता सा।
सब भेद-भाव भुलवा कर
दुख-सुख को दृश्य बनाता,
मानव कह रे! 'यह मैं हूं,
यह विश्व नाड़ बन जाता!'
श्रद्धा के मधु-अधरों की
छोटी-छोटी रेखायें,
रागारुण किरण कला सी
विकसीं बन स्मिति लेखायें।
वह कामायनी जगत की
मंगल-कामना-अकेली,
थी-ज्योतिष्मती
प्रफुल्लित मानस तट की बन बेली।
वह विश्व-चेतना पुलकित थी
पूर्ण-काम की प्रतिमा,
जैसे गंभीर महाह्रद हो
भरा विमल जल महिमा।
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