कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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एक विस्मृति का स्तुप
अचेत, ज्योति का धुंधला-सा प्रतिबिंब!
और जड़ता की जीवन-राशि,
सफलता का संकलित विलम्ब।''
''कौन हो तुम वसंत के दूत
विरस पतझड़ में अति सुकुमार!
घन-तिमिर में चपला की
रेख, तपन में शीतल मंद बयार।
नखत की आशा-किरण समान,
हृदय के कोमल कवि के कांत-
कल्पना की लघु लहरी
दिव्य, कर रही मानस-हलचल शांत!''
लगा कहने आगंतुक व्यक्ति
मिटाता उत्कंठा सविशेष,
दे रहा हो कोकिल सानंद
सुमन को ज्यों मधुमय संदेश-
''भरा था मन में नव
उत्साह सीख लूं ललित कला का ज्ञान,
इधर रह गंधर्वों के देश,
पिता की हूं प्यारी संतान।
घूमने का मेरा अभ्यास बढ़ा
था मुक्त-व्योम-तल नित्य,
कुतूहल खोज रहा था,
व्यस्त हृदय-सत्ता का सुंदर सत्य।
दृष्टि जब जाती हिमगिरि
ओर प्रश्न करता मन अधिक अधीर,
धरा की यह सिकुड़न भयभीत
आह, कैसी है? क्या है पीर?
मधुरिमा में अपनी ही मौन
एक सोया संदेश महान,
सजग हो करता था संकेत,
चेतना मचल उठी अनजान।
बढ़ा मन और चले ये पैर,
शैल-मालाओं का श्रृंगार,
आंख की भूख मिटी यह देख
आह कितना सुंदर संभार!
एक दिन सहसा सिंधु अपार
लगा टकराने नग तल क्षुब्ध,
अकेला यह जीवन निरुपाय आज
तक घूम रहा विश्रब्ध।
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