कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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यहां देखा कुछ बलि का
अन्न, भूत-हित-रत किसका यह दान!
इधर कोई है अभी सजीव, हुआ
ऐसा मन में अनुमान।
तपस्वी! क्यों इतने हो
क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक
हताश-बताओ यह कैसा उद्वेग!
हृदय में क्या है नहीं
अधीर-लालसा जीवन की निश्शेष?
कर रहा वंचित कहीं न
त्याग तुम्हें, मन में धर सुंदर वेश!
दु:ख के डर से तुम अज्ञात
जटिलताओं का कर अनुमान,
काम से झिझक रहे हो आज,
भविष्यत् से बनकर अनजान!
कर रही लीलामय
आनंद-महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,
विश्व का उल्मीलन
अभिराम-इसी में सब होते अनुरक्त।
काम-मंगल से मंडित श्रेय,
सर्ग इच्छा का है परिणाम,
तिरस्कृत कर उसको तुम भूल
बनाते हो असफल भावधाम।''
''दुःख की पिछली रजनी बीच
विकसता सुख का नवल प्रभात,
एक परदा यह झीना नील
छिपाये है जिसमें सुख गात।
जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल-
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीड़ा से व्यस्त
हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख, विकास का
सत्य यही भूमा का मधुमय दान।
नित्य समरसता का अधिकार
उमड़ता कारण-जलधि समान,
व्यथा से नीली लहरों बीच
बिखरते सुख-मणिगण द्युतिमान।''
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